पूर्णता......
पूर्णता......
शायद कुछ रिक्क्ता थी भीतर
शोर हलचलों का सैलाब था
मन की गहराइयों में उतरी
और ढूंढी इधर उधर
गुमसुम खामोश थोड़ा परेशां सा था मन.....
जान ना पायी वजह
कोलाहल , खालीपन की
भीतर के तूफां से जंग लड़ती
ना जाने कब मनोभावों को
शब्दों में पिरोती चली गई.....
शब्दों के मोह ने
ऐसा मन मोह लिया
बंध गई लेखनी की डोर से
कितने भाव जुड़ते चले गए शब्दों से
और शब्द कभी किस्से बन तो
कभी कविताओं में ढ़लने लगे
मन की रिक्क्ता जैसे धुंधुली होती गई
बेशुमार एहसास पन्नों पे जो बिखरने लगे......
एक बार फिर मन की गलियारों में उतरी
अन्तर्द्वन्द मानो थम सा गया था
ना कोई शोर ना खालीपन
बस ठहराव और पूर्णता......
शायद समझ गई थी
शब्द और अभिव्यक्ति
वजह थी भीतर की "पूर्णता" की......स्वाती