पिता का पत्र
पिता का पत्र
नए परिवेश, प्रतियोगिता की नगरी में
अकेला सा प्रतीत होता था
साहस बढ़ाता आत्मबल भी
काफूर होता लगता था।
अपेक्षाओं के बादल में
धुँधला सा रस्ता दिखता था
कल्पनाओं के मेघ घनेरे
साहस का सूरज छिपता था।
कौतूहलता की चादर ने
विवेक की मूरत ढक दी थी
आधुनिकता की रज़ाई
पतन की नींद ले आई थी।
चकाचौंध की परत ने जैसे
अस्तित्व की नीवं हिला दी थी
विस्मर होती नैतिकता
कर्तव्य की राहें भुला दी थी।
तब
प्रकाश पुंज सा एक संदेसा
मेरे अंतस को जाके जगा गया
और विवेक चक्षु मे काजल सा लग
कर्तव्य का मुखड़ा सजा गया।
पिता के पत्र की एक किरण
अंतर्मन मे प्रवेश किया
अंदर का तमस ,कुमति सारा
इनके प्रभाव से खत्म हुआ।
#पिता का पत्र जब भी मिलता। बालक में नई ऊर्जा भरता #