पदचिन्ह
पदचिन्ह
घर की दहलीज से निकल
स्वयं को हर बंधन से
स्वतंत्र कर
वो चल पडी़ है
चांद को छूने का स्वप्न सजाये
चांद न सही तारे तो छू ही आयेगी
आत्मविश्वास की चमक में
दमक रहा है उसका चेहरा
इतना कि चांद की चांदनी भी
फीकी सी लग रही है
पितृसत्ता की जंजीरों को तोड़
बेखौफ निकली है अकेली ही
घर के आंगन से बहुत छोटा
नजर आता था चांद
अब चांद से देखेगी वह घर का आंगन
उसने सोचा है किसी दूसरे ग्रह पर बसायेगी
वो एक नई दुनिया
इस दुनिया से बिल्कुल अलग
जहां की जमीन होगी उसकी अपनी
जहां बनायेगी वह स्त्रियों के घर
जहां स्त्रियों के मालिक नहीं होंगे पुरूष
जहां स्त्री तन को नहीं
मन को दी जायेगी प्राथमिकता
जहां स्त्री को देवी कहकर
भ्रमित नहीं किया जायेगा
जहां वह केवल और केवल स्त्री होगी
हंसती -खेलती , मुस्कराती - गाती
वह प्रेम और ममत्व के जल से
सींचेगी वहां की धरती
उस धरती पर उगेगी
अपनत्व और समानता की फसल
इस धरती की स्त्रियों के दुख याद करके
टपक पडे़गें उसके नैनों से दो बूंद आंसू
उन आसुओं से जन्मेगें एक स्त्री और एक पुरूष
वह भर देगी उनके रोम - रोम में
एक दूजे के लिए प्रेम और सम्मान के भाव
उन स्त्री और पुरूषों से रचा जायेगा
दूसरी धरती पर दूसरा संसार
देखो ! वह स्त्री छोड़ती जा रही है अपने पदचिन्ह
इस दुनिया से तंग आ चुकी स्त्रियों
तुम चल दो उसके पीछे -पीछे......