नव आदित्य
नव आदित्य
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धरा के अंतिम छोर पर
सृष्टि के प्रलय को
मनुज है देख रहा
सब डूबे , डूबा विभव
अंतर्मन की इस पीड़ा को
मौन अकेला झेल रहा
व्यर्थ बरसने है लगा
भय बनकर हलाहल
दिव्य जीवन कांप रहा
निस्तब्ध नीरव रात्रि में
अविरल बहते विचारों की
धारा का, रव सुन रहा
कल आज और कल के
द्वन्द में उलझ कर
द्वार मुक्ति का बूझ रहा
एकांत नियति के शासन में
जीवन -जीवन की है पुकार
कुछ क्षण का बस , यह खेल रहा
हे विराट- विश्व देव तुम हो,
तेरी सत्ता सब स्वीकारते यहाँ
मंद ,गम्भीर, धीर यही गान रहा
मनुज के त्रस्त मुख से
भय - आच्छादन हटने लगा
नव आदित्य, कोमल ज्योति
बिखेरता देख आ रहा।