नियति जिंदगी की
नियति जिंदगी की
इंसान भी क्या
अजीब प्राणी है,
जब तक जीता है
आस लगाए रहता है,
कभी कुछ पाने की तलाश में
कस्तूरी मृग बन
इधर उधर भटकता है।
जो पास है
उसकी बेकद्री करता है,
जब कुछ छूट जाए
या खुद से ही दूर हो जाए
तो दिल ही दिल
फूट फूट रोता है।
जब टूटता है
जार जार बिखर जाता है
बस काठ का पुतला बना फिरता है,
कभी अजनबियों पर हद से ज्यादा यकीन
कभी अपनों से ही दूरियां बना लेता है,
कौन सच्चा कौन झूठा
बस इसी पेशोपेश में फंसा रहता है।
जब सच से सामना होता है
तब खुद से बेजार होता है,
अपने दर्द को जज्बातों को
आंसुओं से बयां करता है।
कोशिश बहुत करता है
खुद में विश्वास लाने की,
खुद मुश्किलों से पार पाने की,
जब खो देता है यकीन खुद से
तो हार मान सब नियति पर छोड़ देता है।
अपनों से बहुत उम्मीदें रखता है
दिल को उनसे ही साझा करता है,
आस में रहता है
कोई तो समझे उसे,
कोई तो हो जो बांटे उसके दर्द को,
कोई तो हो जो उसे मझधार से निकाले
डूबती नैया को उसकी पार लगा दे,
कठिनाइयों में हरदम
वो उलझता जाता है,
खुद ब खुद उबरने की कोशिश कर,
अक्सर खुद ही डूब जाता है।
कभी हंसता है
वो अपने नसीब पर,
झुंझलाता है
अपनी मुश्किलों पर,
कोशिश करता है
इससे निकलने की
जिंदगी भर जद्दोजहद करने की
सोचता है अक्सर
यूं ही जिंदगी चलेगी
तो सब खत्म हो जाएगा
क्या जिंदगी क्या खुशी
सब यादों में रह जाएगा,
जिंदगी की नियति बन कर।
