नि:स्वार्थ प्रेम
नि:स्वार्थ प्रेम
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अजीब सी कशिश है
इस प्रेम की अगन में
बस झोंक देना है
कोई परवाह नहीं
एक परम आनंद है इस लगन में,
कैसा खिंचाव है
सुध – बुध बिसरा कर
इस लौ से आसक्त ये पतंगा
खींचा चला आता है
अपना सब कुछ लुटा कर ,
ये जो प्रेम के धागे है
हम इंसानों में ही गांठ लगाते हैं
इन पतंगों को देखो
नि:स्वार्थ प्रेम में
धागे सहित जल जाते हैं।
