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Mamta Singh Devaa

Others

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Mamta Singh Devaa

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नि:स्वार्थ प्रेम

नि:स्वार्थ प्रेम

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अजीब सी कशिश है

इस प्रेम की अगन में

बस झोंक देना है

कोई परवाह नहीं

एक परम आनंद है इस लगन में,

कैसा खिंचाव है

सुध – बुध बिसरा कर

इस लौ से आसक्त ये पतंगा

खींचा चला आता है

अपना सब कुछ लुटा कर ,

ये जो प्रेम के धागे है

हम इंसानों में ही गांठ लगाते हैं

इन पतंगों को देखो

नि:स्वार्थ प्रेम में

धागे सहित जल जाते हैं।



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