Nisha Nandini Bhartiya

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5.0  

Nisha Nandini Bhartiya

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नानी का गांव

नानी का गांव

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खेलते कूदते बचपने में                              

नानी के मटियाये गांव में

गर्मी की उमस उजास में

भरी दुपहरी महुआ के नीचे

तालाब के किनारे

झरबेरी की चुभन को सहते

खेतों से ककड़ी चुराते

बस्ता फेंक कर देखे थे

संगी साथी संग सुनहरे सपने।

पकड़ा पकड़ी के खेल में

छुपन छुपाई में

रस्सा कुदाई में

पिट्ठू की सवारी में

लगड़ी टांग से दौड़ते

हवा में उछलते

पोशम पा खेलते

की थी पकड़ने की कोशिश

स्वर्णिम सूरज को

झिलमिलाते सितारों को

चमकीले धवल चांद को।

खेल खेल में जिस चांद से

बतियाते थे

रूई के फाहे से बादलों पर

अपना घर बनाते थे

माँ के डांटने पर                   

करते थे शिकायत चंदामामा से

कभी कभी दोनों हाथों से

पकड़ के उसे खुश होते थे

नाराज होने पर कट्टी करके

छोटी छोटी हथेलियों से

मुँह ढक लेते थे।

महसूस होता है आज

हथेली पर सरसों उगाना

मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है

दिखाई देता है चाँद                   

हस्त रेखाओं में

उसको पकड़ने की कोशिश में

बालों की कलई खुल गई

हथेली पर लिए घूमते रहे

पर पकड़ न सकेेे।

चाहत अब भी बाकी है

उसको पकड़ने की

जी भर चांदनी में नहाने की

रूठते मनाते बात करने की

आपबीती सुनाने की

मनमानी करने की

दिल में बसाने की

ईद के चांद को इधर उधर

ढूंढने की।

कलयुगी आकाश को

ढूंढने में करनी पड़ती है बड़ी मशक्कत

इंटरनेट में सिमटी दुनिया में

सूरज चाँद सितारे कंप्यूटर में

बिखेरते हैं चांदनी और लालिमा

पाँच तत्व तो वही है

पर कहीं खो गए है                       

हम और तुम अपनी उड़ानों में

अब न वो फुर्सत के लम्हें है

न हँसी ठिठोली है

न माँ की गोद है

न चंदा मामा की लोरी है।


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