महक
महक
फूल बिखरे राहों पर सपने भरी चाँदनी
सपनों में खोई खोई चल रही थी मैं,
एक काँटा चुभ गया।
चौंकी, जब इह लोक में आई
सपनों से अलग दुनिया थी-
न था वह फूलों भरा रास्ता,
न ही थी सपनों की वह गली
न ही था, वह चाँदनी का सागर
न ही था वह सूरज का जलवा।
बस, मैं अकेली खड़ी निहार रही थी,
एक खाली सूने चौराहे पर।
किस रास्ते पे है मेरी गली
न जानूँ मैं, संदेह खड़ी
ढूँढूँ मेरा पता ठिकाना
कहाँ मुझको है जाना?
दिल की आँखें बंद कर ली
आकाश पर नज़र डाली -
किसी ने उँगली मेरी थाम ली
उँगली पकड़ साथ ले चला।
ये तो सपना नहीं था,
फिर ये उँगली किसकी थी..?
चलती रही मैं उंगली पकड़ कर
भरोसा ही मेरा सहारा था,
पहुँच गयी मैं उस गली में जहाँ
फूलों से भरा रास्ता खड़ा था।
सूरज का जलवा आँखों में था
प्यास से दिल दुख रहा था,
हथेली में भर के चाँदनी
एक घूंट में पी गयी...
चकित हुई मैं, यह महक किसकी थी?
चाँदनी की या मेरी हथेली...की।