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आ. वि. कामिरे

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आ. वि. कामिरे

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मैं उसके काम आ सका

मैं उसके काम आ सका

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वो अकेले ही थी बैठी वहाँ पर

न उसे दुनिया कि चिंता न थी फिकर 

समय शाम का

और रंग भी बड़ा बेचैन सा

 झल्ली सी थी वो

बिखरे बाल और न था धुला मुंह 

फिर भी थी बेचैनी आँखों में

फटी पुरानी पर्स उसकी

 न जाने कितने ही रुपये समाये रखेगी 

बेचैनी भरे हाथ कुछ ढूंढ रहे थे मानो 

सच कहूँ तो कुछ गिन रहे थे मानो

गिनते गिनते हाथ वहीं रुक जाते उसके

चिंता के मारे फिर सोच में खो जाती कही के

देखे उसकी ओर तो लगता जैसे 

भूखेपन से मानो मरना तय हो तैसे 

फिर भी वो हारी नहीं

इतनी तकलीफों के बाद भी वो डगमगायी नहीं 

उठ खड़ी हुयी टटोला पर्स को फिर से 

फिर निकले कुछ दो रुपये उसमें से

वही ले के वो पास मेरे आयी 

सहमा सा चेहरा बनाये

कुछ आशा कि किरण मन में ले 

सामने मेरे खड़ी हुयी

हाथ फैलाया जब उसने मेरे आगे

नहीं कर सका मना में ये देख के 

पर मैं भी क्या करता 

जेब तो मेरी भी कड़की थी 

था १०० का नोट इक 

पर वह भी पूरे महीने चलाना था

कुछ रास्ता दिखा न जब 

मुझे मेरे ही जेब से मिले दो सिक्के तब 

दिये भेट स्वरूप उसको मैंने सब 

आशा उसकी डगमगायी नहीं 

फिर से लगी गिनने वह सिक्के तब 

पता नहीं इससे उसका पेट भरेगा या नहीं 

ये नहीं मिला मुझे सौभाग्य देखने का 

फिर भी मैं उसके कुछ तो काम आ सका....



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