मैं हूँ अकेली
मैं हूँ अकेली
सखी री मैं हूँ अकेली
सारे दुनिया के बंधनों को हूँ झेली
सखी री...
वक़्त ने मुझको मार दिया है
किसी भी कर्म का फल न मिला है
अब किस्मत के दर पे
बैठी हूँ अकेली
सखी री..
पाँवों में पड़ी हैं बेड़ियां
हाथों में लगी हैं हथकड़ियाँ
समाज की देखो ये कैसी कुरीतियां
बढ़ने नहीं देते हैं अपनी ही बेटियां
सारे जग का बोझ उठाकर
खुद का ही बोझ
उठा के चली हूँ अकेली
सखी री..
कई यत्न किये हैं मुझको मिटाने के
आऊँ न मिलने इस नए जमाने से
आ भी गयी तो लज्जित की जाऊँगी
भरे बाजार में बेइज्जत की जाऊँगी
ताने दे देकर लोग रुलायेंगे
अपनी मर्यादाएं भी भूल जायेंगे
इतनी पीड़ा सहकर
जीने चली हूँ अकेली
सखी री...
सुन लो ऐ मिट्टी के पुतलों
मैंने ही-२ जन्मा है तुमको
माँ के तुम वीर सपूतों
बहनों के तुम प्यारे चहेतों
फिर मुझको क्यों अधिकार नहीं है
जीने का क्यों अधिकार नहीं है
सबके भावों को लेकर
फिर भी रहती हूँ अकेली
सखी री मैं हूँ अकेली।