कवि की वसीयत
कवि की वसीयत
एक दिन
सबके समान,
मेरा भी दिन आयेगा।
चीख –चिल्ला कर
बिलख –बिलख कर,
आँसू बहायेगा।
नींद आती है सो लें,
सपने भी सजा लें,
पर
आँसू न छलका,
तुम्हारे मन में
मेरा मन है बसा।
तू चाहे अर्थी सजा ले,
वसीयत भी बना लें,
फूल बरसा, दुःख में दिन काट,
पर
दुःख का नकली मुखौटा,
चेहरे पर न चढ़ा।
तुम्हारे लिए
मैंने कुछ भी
नहीं है बनवाया
न एक घर
छिपाने को सर,
न एक पेटी गहने,
देखे बस सपने।
न एक खोखा पैसे,
न जाने होते हैं कैसे ?
कभी एक सैर –सपाटा !
नहीं कभी नहीं।
बस हमेशा,
चूल्हा- चक्की और आटा
फिर भी तुम्हारी ज़िंदगी की,
दुःखों से भरी चादर को,
पैबंद लगाकर,
मैंने है सिया।
याद रखना,
तुम्हारी याद को,
सपने में ,हक़ीक़त में,
सहेजा कर है सींचा।
जो कभी सूख न पाएगा,
मेरी ज़िंदगी तुम्हीं से है सार्थक,
और मेरी मौत भी तुम्ही से होगी
अर्थगर्भित।
यही है बस मेरी वसीयत।।
