क्षितिज को समझो
क्षितिज को समझो
धर्म की क्षितिज पर ठहरा है ओस की बूँद सा एक अभिगम, उस क्षितिज को समझना होगा भूखंड के उपर तैरते पत्थर दिल हैवानों को.!
कब तक टंगे रहेंगे उस क्षितिज को पकड़े
बहुत मसले पड़े है,
देश की नींव को खोखली मत करो मज़हबी मुद्दों में जकड़े.!
धर्म से परे एक नज़र भर कर लो.!
माँ भारती की लाज सर झुकाए खड़ी है
मानवता की धुरी से छांट कर कुछ रत्नों को धर्म की शख़्सीयत पर परत चढ़ा दो...!!
अपनापन ओर भाईचारे के सूर से चुराकर कुछ सरगम देश में बह रही नफ़रत की बयारों में बाँट दो.!
सूत्र सजा है सदियों से अनेकता में एकता भासे कहाँ दूर-दूर तक छोर कहीं ना दिखता.!
रंग चुरा लो हरा केसरिया अमन को आगाज़ दो,
सुराही छलका दो प्यार की भारत की भूमि महका दो,
खून की नदियाँ खौल रही है हर दिल दिमाग में यारों सुकून का संचार दो.!
चारों दिशा से चलो साथियों हिन्दू, मुस्लिम, शिख, ईसाई लड़ी बनाकर एक दूसरे के हाथ में अपना हाथ दो.!
साथ जुड़कर एक बनों सब अपनेपन की कलि खिलेगी, दिशा एक नई खुलेंगी.!
झिलमिला उठेगी तिरंगे की शिखा चाँद सी रोशन,
बदली हुई मानसिकता के ओजस में घुलती भारत की भूमि सजेगी।।
