क्रिया कलाप
क्रिया कलाप
करवट लेती है जब सोई सुंदरी उस पर बजते नूपुर की तान पर ज़िंदा होती है ज़िंदगी।
हंसी में घोलती हरसिंगार उसके हर स्पर्श से कायनात कि सर्वांग ऋचाएँ डोलती।
भोर की पहली किरण सी नाजुक अनछुए सपनों की सेज सी पलकें उठाती है जब मुग्धा
हर पेड़ की शाखों से पतझड़ ओझल होते बसंत की हरियाली भात बिखरती है।
बोलती है जब उसकी वाणी सुन नृत्यकला की हर भंगिमाएं खिलती।
साँसों कि माला में सुगंधित संदल घोलती करती हर शाम को सुचारू सुरोशन।
अंगड़ाई पर उसकी चलते हर पहर दिन रथ की धुरी पर उस संदली का राज।
सप्तक सूर सी गूँज ये हर नारी के भीतर बसती नजाकत का शोर है साहब।
तन की भूगोल से परे भीतरी शृंगार का नुक्ता है नारी की हर क्रिया, महसूस करो।