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कल तुम्हें बुला रहा है

कल तुम्हें बुला रहा है

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देखो !

वे दाना चुनते

पंछी भी उड़ गए

तुम्हारी सबल

पदचाप से घबरा कर


मोर ने भी समेत लिए पंख

बंद कर दिया नर्तन

कोयल ने भी साध लिया

अनथक मौन

दिशाओं ने भी बदल लिए

अपने वास्तु-संकल्प


बिजलियाँ भी मुंह छुपा कर

अलोप हो गई है

घनघोर घटाओं में,

वेद ऋचाओं ने भी

धार लिया है तुम्हारा मौन बीज मंत्र

सरगम के तराने भी


करने लगे हैं विकराल अट्टहास

फल-फूलों से लदी झाड़ियां

चाहती है बोझ विमुक्ति

सुबह-सुबह सुनाई पड़ने वाली

परभाती भीनहीं सुनाई देती अब

क्योंकि तुम्हारा मन थक गया है


हर रात की सुबह होती है

भूल गए शायद तुम

देखो

उस मरियल पौध को

हरियानेे को तड़फ रही है

अब भीउम्मीद छोड़ी नहीं उसने।


जगा विश्वास अपना साथी

मरु-पौध में निश्चय गुलाब खिलेगा

सुबह का भूला

जब लौट आए शाम को तो

भपला नहीं कहते


पेड़ बन कर

अमरलताओं को समेट ले

खुद में

कल तुम्हें बुला रहा है।


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