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ARVIND KUMAR SINGH

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ARVIND KUMAR SINGH

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खेली कौन सी होली

खेली कौन सी होली

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छोड़ी न चुनर ओ बेदर्दी

क्‍या तेरे मन को भाया

हाथ पकड़ लिए पहले तूने 

फिर जम कर रंग लगाया


एक हाथ में रंग था तेरे

दूसरे से भर ली कौली

गालों पे फिर रगड़ा ऐसे

ये खेली कौन सी होली


चीखी-चिल्‍लाई, हाथ जोड़े             

पर तुझको दया न आई  

बीच बजरिया रंग लगाया

कितनी हुई मेरी रूशवाई


मैं डरी, सहमी, सकुचाई

फिर भी तुझे शर्म न आई

सारी सखियों ने देख लिया

अब जग में होगी हंसाई          


घर से बेधड़क निकलती

जो चोरी से रंग लगाता

तेरा मन रह जाता और

मुझे भी न कोई सताता


अब हो गया जीना दूभर 

मोहल्‍ले की शर्म सताए

जग जाहिर हो गई होली

अब बचा न कोई उपाय


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