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कौन था वो?

कौन था वो?

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रोज़ की तरह मैं फिर उठा

उठकर बस शायरी ढूंढने लगा

आज क्या लिखा होगा उसने

सोच कर बेचैनी का पारा बढ़ता रहा


वो शायरियाँ नहीं सच्चाइयाँ होती थी

ज़िन्दगी से जुड़ी उसमे बात होती थी

हर शख़्स का वो आईना होती थी

मायूसी में वो मुस्कान होती थी

टूटे सपनों की आवाज़ तो कभी

टूटे दिल की आह होती थी


सच कहूं

चंद शब्दों को पढ़कर सुकून आता था

मैं अपना आज और कल उससे जोड़

पाता था

गहराइयाँ इतनी की कोई चाहे तो डूब

जाए


हकीक़त इतनी की कोई चाहे तो जी

जाए

लेकिन रात को फिर मैं निराश हो

जाता था

क्या करूँ कभी भी उन शायरी के नीचे

नाम न आता था


न जाने कौन लिखता था ज़िन्दगी

किसकी है ये दुआ या दावा

ख़ैर

मैं तो फिर उठकर

बस शायरी ढूंढता था...



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