कांच से रिश्ते
कांच से रिश्ते
शीशे जैसे हो गए रिश्ते सब
एक को सम्हालता हूँ, तो दूजा टूट जाता है।
टुकड़े टुकड़े हो जाते,जोडूं तो जोड़ूँ कैसे
छोड़ देता हूँ, वहीं पर छूट जाता है।
इनके नुकीले कोने, मुझे दर्द देते हैं,
इंसा हूँ मैं भी, गुस्सा मेरा फिर फूट जाता है।
मेरी सब कमियाँ दिखाता साफ साफ मुझ को
मैं जो कुछ कह दूँ, तो मुझसे रूठ जाता है।
दूर से देखो मिलो, तो ये चमकते हैं
पास जितना जाओ, उतना भ्रम टूट जाता है।