जिन्दगी
जिन्दगी
मॊके गुज़रे कई बार करीब से
पर, हम उन्हैं भुला न पाए,
कभी समझ न सके नादानी में
कभी, हिम्मत जुटा न पाए।।
दोषारोपण करते रहे फिर भी
ए जिन्दगी तुझ पर,
फिर भी कमी न की मेहरबानीयों कि
तुमने मुझ पर।
बस सबकी कमियाँ ढूंढते रहे,
चाहे वो अपने थे या पराए,
मॊके गुज़रे कई बार करीब से पर,
हम उन्हैं भुला न पाए।
गैर जरूरी था जो मेरे लिये,
बस दौड़ता रहा उसे पाने के लिए,
लुटा दी सोने की मोहरें मैंने,
बस चन्द सिक्के पाने के लिये।
कहता रहा जमाना पी लो थोडी सी
मन के विचारों को सुलाने के लिये,
मैं तो पीता रहा पछतावे के आसूं,
ए जिन्दगी तेरे गम भुलाने के लिये।
होते रहे अरमानो के खून
उन अनजानी,
मजिंलों को पाने के लिये,
शुरू होते ही खत्म हो गई,
कई कहानीयां
मेरा अस्तित्व बचाने के लिये।
थक चुका हूं मैं अब ऒर
लडखडाते रिश्ते कर रहे हैं तकाजा,
समझ नहीं आरहा, ये जो मिला है,
वो मजिंल हैं या
मेरे सपनों के अरमानों का जनाजा।

