जीवन का यथार्थ
जीवन का यथार्थ


मर-मर कर तो हम जीते हैं,
जी-जी कर न मर पाते हैं।
कुछ कष्ट हमें ऐसे मिलते,
जिनको न बयाँ कर पाते है।
जो कष्ट हमें अपनों से मिले,
गैरों से नहीं कह पाते हैं।
मर-मर कर तो हम जीते हैं,
जी-जी कर न मर पाते हैं।
अपने कहाँ हैं मिलते अब,
जिनको अपना समझा जाये।
संघनित कष्ट जो दिल में है,
जिनके समक्ष बाँटा जाए।
मुँह खोल सभी बातें कह लें,
नयनों से खुलकर रोया जाए।
अपने कहाँ हैं मिलते अब,
जिनको अपना समझा जाये।
रिश्ते खुद ही मर्यादा भूल चुके,
सब उसका मोल लगाते हैं।
कम नहीं कहीं कोई दिखता,
टीका ऊँची करवाते हैं।
सही गलत की फिकर नहीं,
बस अपना रटते जाते हैं।
मर-मर कर तो ह
म जीते हैं,
जी-जी कर न मर पाते हैं।
संस्कारों की मर्यादा ने,
सच पर डाले तालें हैं।
साँसे सहम सहम कर चलती,
भय में सभी निवालें हैं।
ऐसी उत्पन्न व्यवस्था में,
मुश्किल जीना भी लगता है।
कितनी साँसे अब शेष हमारी,
नहीं समझ हम पाते हैं।
मर-मर कर तो हम जीते हैं,
जी-जी कर न मर पाते हैं।
यक्ष प्रश्न सम्मुख है अब,
जीवन कैसे ढोएंगे हम।
नहीं युधिष्ठिर शेष कोई,
जो इसका उत्तर दे पाते हैं।
मर-मर कर तो हम जीते हैं,
जी-जी कर न मर पाते हैं।
कुछ कष्ट हमें ऐसे मिलते,
जिनको न बयां कर पाते हैं।
मर-मर कर तो हम जीते हैं,
जी-जी कर न मर पाते हैं।।