हमारा पहला कवि सम्मेलन
हमारा पहला कवि सम्मेलन
हृदय जो समझता है मोल अहसासों का वो,
भावों के समन्दर में, कलम डुबोता है।
शब्द फूल ढूंढ कर रंग भावना के भर,
छन्दों और गीतों की माला पिरोता है।
भावों और शब्दों का हो सुंदर संयोजन तो,
बोलो चाहें सुनो आनंद बड़ा होता है।
बिगड़े जो सुर ताल भावना भी हो बेहाल,
पकड़ के सर अपना सुनने वाला रोता है।
कई मित्र लेखक थे मुझको भी शौक लगा,
सोचा मैं भी फेमस कवियत्री बन जाऊँगी।
कलम तो ले आई कॉलोनी की दुकान से,
शब्द और भावना को भी मैं ढूँढ लाऊँगी।
उतावला हुआ मन खुशी की थी खन-खन,
लगा जाने कितनी मैं कापियां भर जाऊँगी।
किसी को ना मै बताऊँ अभी सबसे छुपाऊँ,
जाके सीधे अब तो स्टेज पर सुनाऊँगी।
कईं पेज़ लिखे, कईं रद्दी में समाए पर,
आखिर मैने चंद कविताएँ बना डाली।
और, पढूंगी स्टेज पर श्रोताओं के बीच पर,
ऐसी अपनी इच्छा प्रिय मित्र को बता डाली।
ackground-color: transparent; color: rgb(0, 0, 0);">मान मेरा रखा लिया पता सम्मेलन का दिया,
मैंने भी जरूरी सारी तैयारी कर डाली।
नियत समय पहुँच गई फ्रंट सीट बैठ गई,
हॉल पूरा भरा था ना कोई सीट थी खाली।
एक एक कर सभी सुना रहे कविताएँ,
हॉल पूरा जोरदार तालियों से गूँज रहा।
बारी मेरी कब आए हम भी कविता सुनाएं,
भ्रमित ख्यालों में मन मेरा झूम रहा।
नाम की हुई पुकार मैं तो बैठी थी तैयार,
जो भी लिख ले आई थी मुक्त स्वर में वो पढ़ा।
शोर सारा थम गया शांति कुंज बन गया,
मैंने सोचा मेरी कविता का रंग है चढ़ा।
माला ले कर मित्र पहुचे ज्यों ही स्टेज पर,
लगा खुश होगा मित्र, मेरा सत्कार कर।
कान में वो फुसफुसाया मुझको पीछे घुमाया,
बोला रहम करदे, नहीं इतना अत्याचार कर।
कविताएँ क्या, हास्य-व्यंग का भी रोना आया,
वाणी को विराम दे के सब पे परोपकार कर।
सुन-सुन पक चुके, श्रोता सभी थक चुके,
यहीं लंबे हो जाए ना इतना भारी वार कर।