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ग्रामीण सोच व शौचालय

ग्रामीण सोच व शौचालय

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किया निरीक्षण गाँव का पाया

हर घर मे शौचालय तैयार है

फिर भी न होता इसका उपयोग

क्योंकि जंगल अपरम्पार है

फिर क्यों रखे तशरीफ़ चार दिवारी में

क्या कमी है नदियों-नालों की करते बेड़ा पार है

एक ही आंगन में रसोई-पाखाना

पंडित जी का विचार, ये तो बंटाधार है।


पंडित जी एक समस्या और भी भारी

जिसका न मिलता कोई निदान है

कैसे घुसे सफाई वाला घर के अंदर

खुद से करना तो नाक कटाने समान है

सफाई वाले को कहाँ समझते मानव,

वे इंसान होकर भी जानवरों से बेजान हैं

होता कहाँ इनके साथ मानव सा व्यवहार है

पंडित जी का विचार, ये तो बंटाधार है।


गर बना पाखाना घर के अंदर

पानी का क्या इंतजमाम है

लगेगी लाइन पानी लाने की

फिर पाखाने जाने का क्या काम है

छूटेगी मजदूरी, सूखेगीं फसलें

खेतों के काम तमाम है

पानी पहुँचे घर घर बिजली ही आधार है

पंडित जी का विचार, ये तो बंटाधार है।


बिछे पाइप लाइन, बिजली पहुँचे हर ग्राम हो

हो नाली का निर्माण, सफ़ाई का भी इंतजाम हो

करें स्टोरेज वर्षा जल का,

तालाबों पर न गंदगी का नाम हो

न हों गंदे जंगल, जमीं, नाले, नदी

प्रकृति का भी यही पैगाम हो

समझे हम प्रकृति का संदेशा

क्या हमें उसके रिटर्न्स का इन्तजार है

नुक्कड़ नाटक ही संदेशा पहुंचाने का

समुचित आधार है

हो शौचालय का ही उपयोग,

नहीं तो सच में ही बंटाधार है।


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