घर की याद
घर की याद
सुविधाओं का लाभ उठाने
शहर की ओर चले आए हैं
रोजगार पाने के खातिर....
गांव, खेत सब छोड़ आए हैं
मिट्टी के मकान में बचपन गुज़रा
अब बहुमंज़िली इमारत में रहते हैं
ना शुद्ध हवा यहां, ना शुद्ध पानी है
ए.सी में कटे पूरा दिन बस यही कहानी है
गांव में सब मिलजुल कर रहते
हंसी- ठिठोली सब संग में करते
धान लगाने, गेहूं काटने, दूध दुहने,
घास काटने, बीज रोपने, राशन लाने
सारे काम समूह में करते
बोलचाल से दिन हैं कटते
परेशानी में भी साथ खड़े हैं
आते-जाते साहस भरते
शहरों में आकर जैसे
मनुष्य बेईमान हो गया है
नहीं पूछता यहां कोई किसी को
मानो ईमान सो गया है........
जब भी ऐसा दृश्य दिखे तो
अपने घर की याद आ जाती है
जहां पशु भी बीमार होता है, तो
पूरे गांव की भीड़ आ जाती है
कोई डॉक्टर साहब का पता बताता
कोई झाड़-फूंक वाले को बुलाता
कोई अपने घर से दवा ले आता
कोई तुरन्त देसी उपचार बताता
यहां अगर कोई बीमार हो जाए
या कोई सामने मर भी जाए
या चोरों का शिकार हो जाए
या फिर युद्ध का मैदान बन जाए
यहां केवल तमाशबीन बने
लोग मिलते हैं, जो
बात खत्म होने पर
केवल चटकारे लेते हैं
इसे ऐसा करना चाहिए था
उसे वैसा करना चाहिए था
मुझे तो पहले से ही पता था
ये ऐसा और वो वैसा था.....
गांव में आज भी उस घर में
जहां ताला लगा हुआ है
आते हैं लोग बैठते हैं कुछ पल
और बताते हैं उसकी दशा के बारे में
कुछ सुझाव हमें देते हैं
कुछ राय हमसे लेते हैं
और तत्पर रहते हैं
काम करने के लिए....
अपनापन गांव के उस घर में
गांव के लोगों में, उनके स्वभाव में
आज भी कहीं न कहीं देखने को
जरूर मिलता है...लेकिन यहां पर
बाज़ारीकरण की अंधी दौड़ में
मानवता तो जैसे खत्म हो रही है
घरों में भी पहले-सा प्यार रहा नहीं
रिश्तों में फ़िज़ूल की जंग हो रही है
परंतु यहां भी सब बुरे नहीं है
ना ही सब बहुत खरे हैं
जिसको जिससे मतलब है,
उसके लिए वो बहुत भले हैं।
