ग़ज़ल - वो बचपन के अनूठे दिन
ग़ज़ल - वो बचपन के अनूठे दिन
वो बचपन के अनूठे दिन अभी भी याद आते हैं।
पिटारा खोल यादों का चलो हम कुछ बताते हैं।
कभी तितली कभी चंदा कभी परियों के गाने थे,
चलो फिर से पुराने गीत मिल कर गुनगुनाते हैं।
दमकता दिन था हीरे सा चमकती रात चाँदी की,
चलो फिर ख़ूबसूरत ख़्वाब सोने से सजाते हैं।
बगीचे से सभी मिल कर चुराये आम खाते थे,
चलो मिल आज दो लम्हे खुदी से हम चुराते हैं।
कभी दादी कभी नानी कहानी जो सुनाती थीं,
चलो बच्चों को हम अपने वही किस्से सुनाते हैं।
बनाये दोस्त बचपन में बिना दौलत लुटाये तब,
अभी तक यार सच्चे वो ये याराना निभाते हैं।
वो कुर्सी पर खड़े होना वो मुर्गा बन सजा सहना,
बड़े अफसर बने अब हम सलामी सब बजाते हैं।
कमाने की नहीं चिंता न मजबूरी तिजारत की,
अभी रुपया कमाने को सभी जूते घिसाते हैं।
बड़ा नायाब होता है ये बचपन तुम गँवाना मत,
पुरानी याद करके हम अभी तक कसमसाते हैं।
