ग़ज़ल : ४
ग़ज़ल : ४
कौन सी मुश्किल है साहब आदमी के सामने ।
अब कोई पत्थर नहीं है इस नदी के सामने ।।
हौसलों से मात खाकर रुक गया है वक़्त भी ;
मौत भी बेबस खड़ी है ज़िन्दगी के सामने ।
रौशनी से बेख़बर गुमनाम इक इन्सान है ;
झुक गया था जो कभी ख़ुद तीरगी के सामने ।
खुशनुमा अहसास ओढ़े दर्द पर हँसता हुआ ;
एक लम्हा ही बहुत है अब सदी के सामने ।
शबनमी मौसम, बहारें और नाजुक सी कली ;
सब हुए कुर्बान तेरी सादगी के सामने ।
वक़्ते-रुख़्सत बारहा मुड़ मुड़ के तेरा देखना ;
रो पड़े पत्थर भी' आँखों की नमी के सामने ।
इश्क के इक जाम ने मदहोश इतना कर दिया ;
कुछ नहीं महफ़िल का' जादू बेखुदी के सामने ।
आँख दिखलाने लगे हैं खार भी अब शाख को ;
और मुश्किल आ पड़ी है हर कली के सामने ।
