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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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ग़ज़ल : ४

ग़ज़ल : ४

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कौन सी मुश्किल है साहब आदमी के सामने ।

अब कोई पत्थर नहीं है इस नदी के सामने ।।


हौसलों से मात खाकर रुक गया है वक़्त भी ;

मौत भी बेबस खड़ी है ज़िन्दगी के सामने ।


रौशनी से बेख़बर गुमनाम इक इन्सान है ;

झुक गया था जो कभी ख़ुद तीरगी के सामने ।


खुशनुमा अहसास ओढ़े दर्द पर हँसता हुआ ;

एक लम्हा ही बहुत है अब सदी के सामने ।


शबनमी मौसम, बहारें और नाजुक सी कली ;

सब हुए कुर्बान तेरी सादगी के सामने ।


वक़्ते-रुख़्सत बारहा मुड़ मुड़ के तेरा देखना ;

रो पड़े पत्थर भी' आँखों की नमी के सामने ।


इश्क के इक जाम ने मदहोश इतना कर दिया ;

कुछ नहीं महफ़िल का' जादू बेखुदी के सामने ।


आँख दिखलाने लगे हैं खार भी अब शाख को ;

और मुश्किल आ पड़ी है हर कली के सामने ।


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