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गाँव की यादें

गाँव की यादें

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मुझे याद है कैसे मन भयभीत हुआ था 

जब देखा था सतरंगी इंद्रधनुष को बचपन में 

कभी इधर तो कभी उधर मैं दौड़ रहा था 

कैसे निकलूं पार लगा था इस तिकड़म में 

ज्ञात नहीं था इस माया का, इंद्रधनुष की इस

छाया का 

दूर स्वयं ही हो जायेगा, राह न मेरी अटकाएगा 

उस पल भी मन दूर रहा था छल कपट के भावों से 

फिर कुछ वैसा हो जाये, ये इंद्रधनुष फिर

भ्रमित कराये 

फिर पहले सा निश्छल ये मन हो जाये 


मुझे याद है अपने घर से, चौथे पांचवे छठवें घर तक 

आना जाना रहना खाना कुछ भी नहीं खटकता था 

हर एक रसोई के चूल्हे में सबकी दालें गलती थी 

सबके लिए खुली रसोई कुछ भी नहीं अखरता था 

नींद जहाँ पे आ जाती वही बिस्तरा बिछ जाता 

किसकी खटिया किसकी मचिया कोई नहीं गिनाता 

मन के खुले दरवाज़ों से ही खुले हुए थे घर के द्वार  

फिर कुछ वैसा हो जाये, हर एक घर फिर खुल जाये 

फिर पहले सा निश्छल ये मन हो जाये 


हुई दोपहरी लग जाती थी ताश मंडली अपने काम 

बिन पंखे बिन ए.सी के गर्मी का होता था काम तमाम 

कितने रानी कितने राजा काटे जाते ग़ुलामों से 

बड़े बड़े तिकड़म आजमाते छोटे छोटे पत्तों से 

हार जीत का जश्न मानते थे पीकर जब ठंडाई 

भूल सभी फिर हम जाते अपने मन की कडुवाई 

फिर अगले दिन की तैयारी कौन बनेगा किसका यारी 

फिर कुछ वैसा हो जाये, कोई गड्डी फिर खुल जाये 

फिर पहले सा निश्छल ये मन हो जाये


आज शहर में गुमसुम बैठे याद गाँव की आयी है 

अपनी सौ गज की हद है बाकी जमीं पराई 

यहाँ पड़ोसी नहीं जानता वहां गाँव की बात ही क्या 

कोसों दूर देते हैं परिचय फलां फलां का भाई है 

नेमप्लेट तक सीमित है पहचान यहाँ 

मीलों तक विस्तृत है पुश्तों का नाम वहां 

जुड़े शहर से कितने लेकिन गाँव को भी न छोड़ें 

फिर कुछ वैसा हो जाये, गाँव में वो रौनक आ जाये 

फिर पहले सा निश्छल ये मन हो जाये



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