मेरी मंज़िल
मेरी मंज़िल
मेरी मंज़िल हमेशा दूर रही
पर दूर से दिखती रही
दो कदम का था सफर
पर कदम बढ़ न सके
मेरी मंज़िल दूर से ही
मुझे देख हंसती रही
जो सफर मैंने चुना
वो है सदा काटों भरा
कदम मेरे रुक गए
जब पांव काटों से डरा
मेरी मंज़िल कंटकों के कई जंगल
पार कर बढ़ती रही
मैं खड़ा था एक सिरे पर
और मंज़िल दूसरे पर
पा ही लेता मैं उसे
तेज चल पाता अगर
मेरी मंज़िल मुझसे आगे
दो कदम चलती रही
आकाश की और करके इशारा
मैंने सोचा छू लिया तारों को मैंने
हाथ अपनी ही जगह थे
तारे पर बढ़ते गए
मेरी मंज़िल और मेरे बीच की
जो दूरियां थी वो सदा बढ़ती रही