दोहा 5
दोहा 5
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कंठ हार भोले सजे है परम मूल्य वान।
भक्त अपरिमित वासुकी न करे कोई मान।।
बंधे मेरु पर्वत से छलनी हुआ शरीर।
मंथन का दायित्व ले हर ली जग की पीर।।