चोरी एक अपराध
चोरी एक अपराध
कायरता की निशानी, होती है चोरी
मेहनत से बेगानी, होती है चोरी
कर्म, तप, दृढ़ता व ईमान, ना समझे
भगौड़ो की मनमानी, होती है चोरी।
चोरी आलस्य को, निशदिन बखानती है।
खुद को ही राह, खुद को मंज़िल मानती है।
हसरतों व सपनों में, सिमटी ही रहती है।
चोरी इंसान की, फितरत पहचानती है।
खून से गाढ़ी कमाई को भी,
साजिश में सानती है।
चोरी सिर्फ और सिर्फ,
निजि स्वार्थ जानती है।
नेक, सच्चे ईमानदार व्यक्ति की,
चोरी कभी सफल नहीं होती।
चोरी हो तो सकती,
मगर कोई फल नहीं होती।
मन में खटकती ही रहती है
अच्छाई कभी विफल नहीं होती।
चोरी सिर्फ बेईमानों के,
ह्दय मे निवास करती है।
इच्छाओ और ज़रूरतों से अन्धों में
वास करती है।
हीन, पीड़ित, लाचार, चोर भी हो,
ऐसा जरूरी नहीं
फिर चोरी में नज़रे, क्यों हमेशा
उन्हीं का आभास करती है।
चोरों का कोई भविष्य नहीं होता,
चोरी सर्वनाश करती है।
क्षमता तो गिराती ही है,
श्रम का भी नाश करती है।
चोरी ही इंसान के स्वार्थ बढ़ाती,
जीते जी जिंदा लाश करती है।
चोरी हसरतों को बढ़ावा नहीं देती,
सिर्फ एक परिहास करती है।
चोरी मंज़िल तक पहुँचाती नही,
सिर्फ भेजने का प्रयास करती है।
चोर ही गवाह है, चोरी खाली काश
काश काश करती है।