छूटा बचपन का गांव
छूटा बचपन का गांव


छूटा बचपन का वो गांव
आम पीपल बरगद की छांव
जिसके नीचे खेलते थे हम
बुनते थे ख्वाबों के स्वेटर
महुआ की मदमस्त गंध से
यौवन की अँगड़ाई लेते भर
वट अमावस को सुहागिने
रंग बिरंगी चूनर पहन कर
बांधती थी बरगद को सूत
लगाती थी उसके सब चक्कर
किसी के भी दुख सुख के क्षण
पूरा गांव उमड़ आता था
अमीर हो या गरीब कोई भी
अकेला खुद को न पाता था
तब घरों में ढिबरी होती थी
अब घरों में बिजली आ गई
तब सब मिलकर पढ़ते हँसते
अब अपने घरों में कैद रहते
रीत रिवाजों से थी पहचान सबकी
आदर बड़ों का सबकी संस्कृति
अब कोई किसी से सीधे बात भी
करता नहीं आ गई है विकृति।
परंपरा कुछ नई, कुछ पुरानी
बूढ़ा बरगद है अब भी निशानी
चलो फिर उसकी छांव में सोचे
गांव, परंपरा, संस्कृति है बचानी।