बुलबुल
बुलबुल
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ढलती शाम जैसे उठती हो किसी मोड़ पर
ढलता सूरज जैसे उगता हो किसी छोर पर
एक बना मुंडेरा छोटा सा
छोटी सी उस एक डोर पर।
वो शाम सवेर आती है
कुछ तिनके वहां बिछाती है
वो डाल पर बैठी छोटी बुलबुल
गुनगुन गुनगुन कुछ गाती है।
है रैन बसेरा दो प्यारों का
बुलबुल के नन्हे न्यारों का
दो चंचल मुख नित हस्ते हैं
दो नन्हे डाल पर पलते हैं।
वो दाना प्रतिदिन लाती है
और प्रेम से उन्हें खिलाती है
एक डाल पर बैठे छोटी बुलबुल
गुनगुन गुनगुन कुछ गाती है।।