बसंती विरहा
बसंती विरहा
हाय रे बैरन बयार,
कहर ढा रही है।
बिन लगाए इत्र नित,
निज तन महका रही है।।
निजता रही है मचल,
त्रष्णा बढती जा रही है।
मन पिया के पास है,
क्यों तन जला रही है।।
भाव करें क्रंदन,
हिय ले रहा अब हिचकोले।
फूल भी लगते नयन को,
तडित तपते शूल शोले।।
कोयल गाये गीत सुंदर,
पिय की भांती रुक रुक के।
ये हवा भी गुदगुदाये,
सर्द सुर्ख छुप छुप के।।
कोई कह दो जा, पिया
परदेश से अब आ जाओ।
फूल खिलते बदन में,
भंवरे की भांति गुनगुनाओ।।
बस में अब बसता नहीं,
वासित हुए सारे वसन।
मन निहारे राह नित प्रति,
रो रहे हैं ये नयन।।
ये बसंती ऋतु सुहानी,
देह दूभर कर रही।
अब वियोगी पिय विरह में,
नित नित छिन छिन मर रही।।
