बोझा है भारी बहुत
बोझा है भारी बहुत
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बोझा है भारी बहुत,
झूठा ये अभिमान।
पिछले पन्नों में लिखा,
कड़वा सच ये जान।।
शब्द- शब्द में ज्ञान के,
कैसा अद्भुत नूर।
देवों के सुर बोलते,
तुलसी, नानक,सूर।।
खुशियों के दो-चार दिन,
कर देते मग़रूर।
ये जग झूठा आसरा,
मंज़िल अपनी दूर।।
नैतिकता पहचान थी,
उस पर था अभिमान।
राह पुरानी भूलकर,
भटक रहा इंसान।।
महलों के पत्थर कहें,
मानव तू अंजान।
दो कौड़ी में बिक गये,
लाखों के सुलतान।।
चार दिनों की ज़िंदगी,
सदियों का है जोड़।
कितने भी करतब करो,
जाना है सब छोड़।।