STORYMIRROR

'बोझ'

'बोझ'

1 min
25.9K


 

सुनता आया हूँ

बचपन से...

अपना बोझ स्वयं उठाओ

और तब से

कहीं गहरे अवचेतन में

बैठा हुआ है यह शब्द

कुंडली मारे हुए

सोचता हूँ

सुनने और सहने में

कितना अंतर होता है!

और कुछ शब्द

सचमुच कितने वज़नी होते हैं!

एक बार ज़ेहन और ज़िंदगी में

आ जाएं

तो जाने का नाम नहीं लेते

उठाते हुए कई-कई बोझ

अब तो कंधों ने भी

उचकना छोड़ दिया है

और कुछ दोस्ती-सी हो गई है

इस शब्द से भी

और शायद तभी

बोझ

हल्के लगने लगे हैं इन दिनों...


Rate this content
Log in