बहू
बहू
हसरत थी मन में बेटा हो जाए
बहू आये मेरा वंश बढ़ाये
छम - छम मेरे अंगना में डोले
कानों में मिशरी घोले
अनकही गाँठों को पल
भर में खोले
थक जाऊँ जब मैं काम से
मेरी पंगात बैठे मेरे पैर रोले
कुदरत का करिश्मा
बेटा हो गया
पढ़ - लिख परणा गया
सदियों से माँगी मुराद
आज पूरी हो गयी
बहू के घर आने से
ख़ुशियाँ नाचने लगी
घर - आँगन मानो
चहक गया
बेटी की जो कमी थी
वो आज पूरी हो गयी
कनखियों से मन के
कोने में
कसक सी डोल गयी
सँस्कारों से पोत कर
घर को सजाया है
दीवारों को भी हमने
पुख्ता उठाया है
क्या? मर्यादा की ये दीवारें
यूँ ही पुख्ता रह पायेंगी
बहू - बेटे में और हम में कहीं
खाई तो नहीं आ जायेगी
मन काँप रहा है जुँबा भी
खामोश है
बढ़ी हुई हैं धड़कने
आँखें भी मदहोश है
कुछ कहना भी चाहता है इंसा
पर रहता वो ख़ामोश है
ज़माने ने कुछ ऐसी
करवटें बदली हैं
घर की लक्ष्मी थी जो
वो कमाने निकल पड़ी है
काँधे से काँधा मिले
कारवाँ हो जाता है
अहम से अहम टकराये
नासूर बन जाता है
घर - घर में मर्यादाओं की
होली जल रही है
स्वतंत्रता बनाम
स्वच्छंदता बन गयी है
आत्मनिर्भता के पक्ष में
मैं भी हूँ ज़नाब
जो रिश्तों को निगल
जाये "शकुन"
उसके हूँ सख़्त ख़िलाफ़
