बेघर
बेघर
अर्धविक्षिप्त सा लग रहा,
है मानव सबको यह मित्र,
अर्धचेतना से है झलकते,
पर इसके सब भाव पवित्र।
न कोई चतुराई न धूर्तता ,
सबके अलग-अलग हैं भाव,
सबके संग सम ही तो हैं,
इसके हर व्यवहार में
कोई नहीं दुराव।
दुनियादारी से मुक्त इसके,
निर्मल बाल सरस व्यवहार,
भिन्न सभी के इसके प्रति,
पर इसके सब संग सम हैं विचार।
यह हमें वही है मानता,
मानते हैं हम इसको जैसा ,
भला -बुरा आचरण लौटाए ,
पाता वही जो देता जैसा।
अभी तक यह बेघर असहाय है,
सामाजिक अव्यवस्था से पीड़ित और त्रस्त,
योजनाएं सब इनके ही कल्याण हित,
मात्र सुधारक ही सुधरे -ये बेघर
गरीबी में ही मस्त।
प्रकृति-प्रभु के निकट यह,
नहीं है इसमें कुछ भी संदेह।
बिन पूर्वाग्रह स्वछंद मन,
देता हर नेह के बदले में स्नेह।
