बचपन
बचपन
आओ सखियों सैर कराऊँ
अपने बचपन से मिलवाऊँ।
बचपन बीता गाँव में
हरियाणा की ठंडी छांव में।
पापा सारे गाँव के मास्टर जी
माँ बहन जी कहलाती
हम उनके बच्चे ,
सारे गाँव का प्यार पाते थे।
लड़का लड़की का अंतर था
पर हम उनसे कुछ ऊपर थे
स्कूल में भी पढ़ने जाते थे
लड़कों पर भी धौंस जमाते थे।
लड़कियाँ कम पढ़ने जाती थी
मैं और बहन पढ़ आती थी
खेल सब लड़कों वाले थे
क्या गुल्ली डंडा क्या पतंग
ठकरिओं के गीटे थे
हाथों से खेले जाते थे
गोबर के बिटकले बना
गनगौर भी पूजने जाते थे
सारे त्योहार मना ,
ऊँची पींग चढ़ाते।
सबसे ऊँची डाल पहुँच
सासू के बाल तोड़ लाते थे।
बालू रेत में सैर होती
पहाड़ों पर चढ़ जाते थे
पील, टींट तोड़े
सूखी लकड़ियाँ भी लाते
जोहड़ की मिट्टी लाकर
चूल्हे को लेप लगाते।
बाजरे की रोटी, लापसी के साथ
दिन में चार बार रोटी खाते थे
किसी का खेत, किसी का घर
बेरोक चले जाते थे
कहीं पर चरखा चलाया
कहीं दरी बुन आते थे
हाथ से सेंवियाँ हमने बांटी
चूल्हे पर रोटी बनाई ।
बचपन का मैं कहूं क्या रे भैया
सबसे सुंदर हमने स्मृति पाई।
तरस जाती हूँ उस जीवन को
खेत व खलियानों को,
शहर की आपाधापी में दौड़ रहे हैं।
ना दे पाए अपने बच्चों को गाँव
का वह बचपन का जहाँ।