हिन्दी का दर्द
हिन्दी का दर्द
ऊँचे सिंहासन पर बैठी एक बुजुर्ग ,तेजोमयी स्त्री , पवित्रता जिसके मुख से आभा सी निकल रही थी ,उस दरबार में आने वाले हर नर-नारी उसे प्रणाम करता !वातावरण खुशनुमा था, हर कोई खुश,प्रसन्न!
चुपके से किसी कमसिन, आधुनिक बाला ने दरबार में
प्रवेश किया, तड़क-भड़क वाले पहनावे वाली उस बाला के मुख पर गर्व था। उसे देखते ही दरबार में उपस्थित हर व्यक्ति उसे देख मोहित हो , उसके इर्द-गिर्द मंडराने लगा।
समय बीतने लगा ,धीरे-धीरे हर व्यक्ति सिहांसन पर बैठी उस देवी की उपेक्षा करता गया ,और वक्त बीतने के साथ ,वह देवी सिर्फ़ नाम की रानी रह गयी जबकि उस अतिथि बाला की सुंदरता सब के सिर चढ़ कर बोलने लगी।
वो देवी दिन-ब-दिन उदास रहने लगी ,क्योंकि अपने ही घर में वो अजनबियों सा व्यवहार झेल रही थी। अपने सुनहरी दिन याद करके उसकी आँखों से आँसू छलक पड़ते थे !फिर भी उसे आस थी , अतिथि लड़की अपने घर लौट जाएगी।
हाँ ! ये भविष्य के गर्भ में है ,क्योंकि वो देवी है मेरी राष्ट्रभाषा हिंदी और वो अतिथि बाला अंग्रेजी।
मन में आस जग जाती जब कहीं सुनती कि विदेशों में बैठे उसके बेटे उसका मान वापस लाने कि भरपूर कोशिश कर रहे हैं ।