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प्रिये की हाला - १

प्रिये की हाला - १

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मैं जीवन में भटक रहा,

लेकर मधु का यह प्याला,

मुझको आज पिला दे साकी,

छलका दे वो मधुशाला।


अधरों की प्यास लिए मन में,

नयनों की आस विचरती है,

आया हूँ तेरे दर पर मैं,

दर्शन की आस उमड़ती है।


तू आज विरह को भड़का दे,

आँचल को थोड़ा सरका दे,

अपने उपवन की खुशबू से,

मुझको आ अब महका दे।


दिन रैन पथिक तेरे द्वारे,

जीवन में फिरते मारे मारे,

कुसुमित पल्लव की छांव में,

उन भटकी भटकी राहों में।


गिरते हैं पतंगे बूंदों से,

दीपशिखा के नयनों से,

दे जीवन में थोड़ा आराम इन्हें,

मुझ में खो, कर इनकार इन्हें।


यह छलकी छलकी जाती है,

लब तक आकर रुक जाती है

जीवन की मधुशाला सी यह,

पीने से प्यास बढ़ाती है।

....क्रमश:


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