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थोड़ा सा कर्ज

थोड़ा सा कर्ज

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मुझे इस दुनिया में आने की जल्दी थी,

कुछ लोगों को मुझे मारने की जल्दी थी।


वैसे तो बहादुर माँ की कोख में पलती रही, 

कुछ की आंखों मे खटकती रही। 


घरवालों को लड़के का शौक था ,

माँ के मन में किसी दुर्घटना का खौफ था।


अबार्शन का उनपर जोर डाला गया,

नहीं किया तो घर से निकाला गया। 


वो अपना घर छोड़ सड़कों पे रहने लगी, 

भूख प्यास सब मेरे लिए सहने लगी।


शहर की सड़कों पर जब सूनापन हुआ, 

तब जाकर नई जिंदगी का आगमन हुआ। 


संघर्ष वो करती रही मुझे पढ़ाने के लिए, 

आगे जाकर एक बड़ा नाम कमाने के लिए।

 

आज मेरी माँ को मेरे नाम से जाना जाता है, 

हर शख्स की नजरों में पहचाना जाता है।

 

घरवाले हमसे मिलने बड़ी दूर से आए थे, 

पछतावा नहीं पैसों का दावा करने आए थे। 


कैसे भूलूँ वो सड़क आज भी मुझे याद है, 

बीते दिनों की रातें जिसके साथ हैं। 


सड़क का सबसे बड़ा महल हमारा है, 

इस तरह से मैंने थोड़ा सा कर्ज उतारा है। 


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