आख़िरी पायदान
आख़िरी पायदान
आख़िरी पायदान पर पहुँचा,
तब सोचा,
क्या पाया, क्या खोया।
नीचें झाँका तो देखा,
रूह काँप गयी।
अंतरात्मा धिक्कार गयी,
अनगिनत लोगों के अरमानों को,
पैरों तले रौंदा।
चापलूसी की,
मुझे मिला मौका।
अपनों से दूर,
नोटों के ढ़ेर पर,
बैठ सोच रहा हूँ।
काश! कोई अपना,
पास बुलाये,
गले लगाये,
अनगिनत दिन हो जाते,
बिन मुस्कुराये,
अपने जब थे पास मेरे,
हर दिन जश्न था।
अब हँसने को भी,
बत्तीसी उधार लेता हूँ।
रूह छलनी है,
पर होंठों से मुस्कुरा देता हूँ।
चेहरे पर नकली मुखौटा ओढ़ लेता हूँ।
मुखौटे के पीछे बचे मौन में,
अपने आप को कोस लेता हूँ।
काश! भूख पदवी की,
भूख कुर्सी की,
भूख नोटों की
इतनी ना होती,
तो शायद आज मैं,
इतना ग़मगीन,
उदास, मोहताज़ न होता।
माँ - बाप के साये तले बेख़ौफ़ सोता।
तन्हाई में अक्सर अपने अक्सों को,
रोक नहीं पाता हूँ।
याद आतें हैं जब अपने,
बच्चों जैसा मचल जाता हूँ।
माँ के हाथों की सुगंध,
पिता के हाथों की जकड़न,
अक्सर याद आती हैं।
याद पँख लगा, पखेरू बना,
बीतें समय में ले जाती है।
पहले दाँत थे, पर चनें नहीं थे,
"शकुन" आज चनें हैं, पर दाँत नहीं हैं।