बचपन से पचपन
बचपन से पचपन
कोमल तन निर्मल मन सुन्दर ,
सुख दुख का कोई भान नही ।
बालरूप लखि प्रमुदित हर मन,
मिले न वो मुस्कान कही।
जग के दुष्कर जंजालो से,
बचपन है उन्मुक्त सदा।
एक प्रेम की भाषा समझे ,
जाति धर्म से रहे जुदा।
पहले मां फिर बंश कुटुम्बी ,
फिर जग से होवे पहचान ।
सबके कर्मो का प्रभाव ही,
बालक को दे नव पहचान ।
आते यौवन सबल बने तन ,
मन चंचल हो जाता है ।
बहुतो को अपना हित ही ,
बसआठो याम सुहाता है ।
धन पत्नी परिवार कलह मे,
सब जीवन लग जाता है ।
कब बचपन से पचपन हो ,
कुछ पता नही चल पाता है।
जीवन बीते दुख चिता मे ,
रोगो का आघात हुआ।
सुन्दर मोहक था बचपन ,
सुख का पचपन मे ह्रास हुआ ।।