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नन्द कुमार शुक्ल

Others

4.5  

नन्द कुमार शुक्ल

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बचपन से पचपन

बचपन से पचपन

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कोमल तन निर्मल मन सुन्दर ,

सुख दुख का कोई भान नही ।

बालरूप लखि प्रमुदित हर मन,

मिले न वो मुस्कान कही।


जग के दुष्कर जंजालो से,

बचपन है उन्मुक्त सदा।

एक प्रेम की भाषा समझे ,

जाति धर्म से रहे जुदा।


पहले मां फिर बंश कुटुम्बी ,

फिर जग से होवे पहचान ।

सबके कर्मो का प्रभाव ही,

बालक को दे नव पहचान ।


आते यौवन सबल बने तन ,

मन चंचल हो जाता है ।

बहुतो को अपना हित ही ,

बसआठो याम सुहाता है ।


धन पत्नी परिवार कलह मे,

सब जीवन लग जाता है ।

कब बचपन से पचपन हो ,

कुछ पता नही चल पाता है।


जीवन बीते दुख चिता मे ,

रोगो का आघात हुआ।

सुन्दर मोहक था बचपन ,

सुख का पचपन मे ह्रास हुआ ।।



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