आश्रय
आश्रय
वह बचपना था, मधु सा मीठा था, पुरनूर सा था,
सुबह का नूर सांझ की लोरी में ढल जाता था।
वे माँ-बाप थे जो अब तस्वीरों में चुप हैं
हम कलेजे थे उनके, वे हमें लख्ते-जिगर कहते थे।
रूठते थे तो माँ झट से मना लेती थी,
माँगते थे, वो पिता झट से दिला देते थे,
सारे हक़ मेरे हैं और उनको निभाना माँ-बाप का फर्ज,
यह समझ भी ना थी कि, मकान घर कैसे बनता है।
गलतियाँ हम करते थे, माँ उससे बचा लेती थीं,
भूख कब लगती है, यह एहसास भी ना होने देती थी।
दिवाली पे नए कपड़े, ताजे पकवान से उत्सव,
घर में तंगी है, यह एहसास भी ना होने देती थी।
जिन्दगी अब भी नदियों सी गुजर तो रही है ऐ दोस्त,
बस माँ-बाप रास्ता बताने को जहान में ना रहे।
टोकते थे जब बेवक्त कोई काम किया करता था,
अब बेसाख्ता गलतियों पे समझाइश ना रही।
घर तो उनकी नियामतों से भरा पूरा है,
जगह उनकी है और उसपे हम क़ाबिज हैं।
अब समझ आया कि हर वक्त वे कैसे जीते होंगे,
हमारी जिद पे उनके कितने अरमान दरकते होंगे।
बड़े नियामत हैं उनकी इज्जत करना सीखो,
मुगालते दूर कर सड़क पर चलना सीखो,
हर चौरास्ते पर हरी-लाल बत्तियाँ नहीं होंगी,
चौतरफा देख के सड़क पार करना सीखो।
बहुत एहसास देंगे अपने ना होने का, जब नहीं होंगे
वे बुजुर्ग हैं जब तलक सिरमौर हैं उनका फ़ायदा लीजे।
जिन्दगी के फलसफे और नसीहतें यूँ ही नहीं बनतीं,
बरस लग जाते हैं वट-वृक्ष बनके छाया देने में।