शिखर से सागर तक
शिखर से सागर तक
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सुनो सागर,
मेरी आप बीती सुनो।
मैं निर्मल निष्छल चली थी,
तुमसे मिलने को
कितनी उतावली हो रही थी।
न बाधाएँ देखी,
न जंगल, कांटे देखे
न थकावट भरे मोड़ रोक पाए
न ऊँचाई से गिरने का भय
बस चलती रही मैं
तुमसे मिलने की अकुलाहट लिए
कितनी सखियों को साथ ले
उमंग में इठलाते हुए।
पता है राह में लोगों ने
मेरा प्रवाह रोका
मैला कर दिया
कितना हतोत्साहित हुई मैं
तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी?
यही सोच तोड़ रही थी मुझे।
पर तुम नहीं बदले सागर,
तुमने तो आगे बढ़कर हज़ार
भुजाओं में थाम लिया
मैं तो तृप्त हो गई।
ये नदी अब तुम्हारी हो गई,
हमेशा-हमेशा के लिए।