Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Children Stories Classics Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Children Stories Classics Inspirational

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (2)

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (2)

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तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (2)इसके 4 दिन बाद, दोपहर में मुझे, पापा ने अपनी, इलेक्ट्रानिकली लिखी गई “मेरी कहानी” के प्रिंट आउट, एक फोल्डर में यथावत रखकर दिए। मैंने वह, अत्यंत हर्ष से उनसे, लिए थे। 

अपनी उत्सुकता पर नियंत्रण रख मैंने, इसे रात सोने के पूर्व, तसल्ली से पढ़ना तय किया। उस रात्रि मुझे, एक अभिनव विचार आया। जिसे क्रियान्वित करने के लिए मैंने, माँ से, उनका मोबाइल लिया और अपने कक्ष में अध्ययन टेबल पर जा कर बैठी थी। मैंने, मोबाइल में वॉइस रिकॉर्डिंग ऑन की फिर, कहानी को उच्चारित कर पढ़ना आरंभ किया - 

मेरी कहानी 

मैंने अब तक की कक्षाओं में जैसा प्रदर्शन किया था उससे मुझे, मुझ में कुशाग्र बुध्दि होने का आभास था। 

मैं अपनी मम्मी के साथ, उनके घरेलु कार्य में सहयोग करती, उससे मुझे, मुझ में कर्तव्य परायण होने का, गुण बोध भी था। 

लॉकडाउन में मैंने, लगन से चित्रकारी सीखी फिर अपनी तस्वीर, दक्षता से कैनवास पर खींच दी थी। तस्वीर इतनी जीवंत थी, कि देखने वालों को मैं ही सामने, साक्षात बैठी लगती थी। मेरी निर्मित यह तस्वीर, इस बात का द्योतक थी कि मुझ में, उत्कृष्ट कलाकार की संभावनायें निहित थीं। साथ ही मुझे, अपने अत्यंत रूपवान होने का भी ज्ञान था। 

स्पष्ट था कि भगवान ने सभी कुछ, यथा - सुंदरता, बुध्दिमत्ता, कला, लगन, क्षमताओं की अनुभूति एवं कर्तव्य विवेक, जन्म जात मुझ में संपूर्णता से दिया था। मुझ में, अपनी ऐसी योग्यताएं होना, मुझे अपनी 12 वर्ष की आयु में ही, समझ आ गए थे। 

यद्यपि उस दिन दादी एवं मम्मी की बातों से मुझे अनुभव हुआ कि भगवान जिसे लड़की बनाता है उसमें बड़ी कमी दे देता है। तब भी मुझे प्रतीत हो रहा था कि मेरी #तस्वीर और #तकदीर भगवान ने अच्छी गढ़ी थी।

मेरे पापा कहा करते हैं कि सब कुछ ईश्वर ही नहीं करता है। वह, मनुष्य के करने पर भी कुछ छोड़ता है। यह याद आने पर, मैंने तय किया कि अगर लड़की होना कमी समझी जाती है तो मुझे जीवन में अपनी बुध्दिमत्ता से, वह #तदवीर करनी है जिससे सिध्द हो सके कि लड़की होना, कोई कमी नहीं होती है। 

मम्मी एवं दादी से पूछने पर मेरी अधिकतर जिज्ञासाओं के बारे में उन्होंने, मेरे पापा से पूछा जाना उपयुक्त बताया था। अतः मैंने यह उचित माना कि अपनी तदवीरें मैं, पापा के मार्गदर्शन में करूँ। 

एक दिन, मैंने अपना संशय लेकर पापा से प्रश्न किया - पापा, लड़कियों से, लड़कों के समान रूप से बर्ताव क्यों नहीं किया जाता है? हममें क्या दोष होता है जिसके कारण हमसे भेदभाव किया जाता है? 

पापा ने बताया - दोष, लड़की होने में नहीं है और ना ही दोष, लड़की के किये का होता है। अपनी अपनी विशेषताओं के साथ लड़की एवं लड़के दोनों ही परिपूर्ण एवं समान मनुष्य होते हैं। 

मैंने पूछा - पापा, लेकिन सभी के हमसे व्यवहार में हमें, समानता अनुभव नहीं होती है, ऐसा क्यों है?

पापा ने बताया - बेटी, अपनों के बीच बेटे, बेटियाँ समान रूप से ही देखे-जाने जाते हैं। 

मैंने कहा - पापा, हम तो दोनों बहने हैं, हमें अपनों के बीच कोई अंतर मालूम नहीं पड़ता है। मगर, मेरी फ्रेंड अनु एवं उसका जुड़वाँ एक भाई है। वह मुझे बताती है कि घर में जो अनुमतियां, भाई को होती हैं, वह उसे नहीं होतीं हैं। घर में वे दोनों ही, अपनों के बीच होते हैं, तब भी उनमें भेदभाव किया जाता है। 

पापा ने बताया - मैं नहीं समझता कि अनु के लिए, उनके अपनों के बीच वास्तव में, कोई भेदभाव होगा। निश्चित ही ये दोनों भाई-बहन, अपने माँ-पापा के समान लाड़ दुलारे होंगे। ज़माने में अन्य की बेटी को देखे जाने वाली परायों की बुरी नज़र के कारण, उनमें अनुमतियों का अंतर, पालकों की विवशता के कारण होगा। 

पालक कोई भी हों, अपनी बेटी की सुरक्षा एवं सम्मान पर आशंकाओं को देखकर ही वे, उनके लालन-पालन में अंतर को विवश होते हैं। 

मैंने फिर पूछा - पापा, जब हम भारत में रहते हैं तो यहाँ (पराया) बाहरी कौन हैं। क्या सभी यहाँ, अपने नहीं होते हैं?

पापा ने बताया - जो तुम कह रही हो वह परिदृश्य प्राचीन भारत में था। जिसमें सभी, अपने होते थे। तब किसी भी घर परिवार की बहन-बेटियाँ, समाज के सभी परिवारों में, अपनी बहन-बेटी जैसी दृष्टि से देखीं-समझीं जातीं थीं। लगभग 900 वर्ष पूर्व, बाहरी आक्रमणकारियों ने हमें ग़ुलाम बना कर हम पर अपना शासन स्थापित किया।

दुर्भाग्य से उन्होंने, हमें शत्रु रूप मानते हुए, हमारी बहन-बेटियों के माध्यम से हमारे मान-सम्मान को लक्ष्य किया। शत्रु की बहन-बेटियों को जोर जबरदस्ती से, अपनी कामुकता का शिकार बनाना, हमारे देश में उनकी दी गई बुरी परंपरा है। 

तभी से अपहरण, दुष्कृत्य एवं हत्या के भय से, बहन-बेटियों को घर एवं परिवार में सीमित रखने एवं उनके अतिरिक्त परदों में रहने का रिवाज, हमारे भारत में आया। अन्यथा इसके पूर्व तक हमारी संस्कृति में हमारा यदि कोई शत्रु भी यदि होता था तो वह भी हमारी बहन बेटियों के आदर-स्वाभिमान का रक्षक ही होता था। 

मैंने पूछा - अब तो हमारा भारत स्वतंत्र है, फिर भी लड़के-लड़कियों में यह भेदभाव, क्यों जारी हैं? 

पापा ने बताया - दुर्भाग्य है बेटी, उन आक्रांताओं ने धूर्तता से अपनी कुसंगत से हम भारतीयों की नज़रों में भी खराबियाँ पैदा कर देने का बुरा कार्य किया। यह ख़राब नीयत-नज़र की अप संस्कृति, हम भारतवासियों को परस्पर अपनों सा नहीं बल्कि बाहरी शत्रु जैसा व्यवहार को दुष्प्रेरित करती है। यही अपने हुए पराये, देश में मौके मौके पर देश की बहन-बेटियों को अपनी कामुकता का शिकार बनाते हैं। उन्हें बरगलाते हैं, उनके अपहरण, दुष्कृत्य एवं हत्या किया करते हैं। 

मैंने प्रश्न किया - पापा, अगर ऐसा है तो अनुमतियों पर ऐसी पाबंदी, बेटी की जगह तो बेटे पर होनी चाहिए? 

पापा ने बताया - जब कोई उत्पाद, मात्रा में बढ़ाया जाता है तो प्रायः उसकी गुणवत्ता में कमी आ जाती है। ऐसे ही, हमारी देश की जनसँख्या बढ़ी है। कई कई संतानों का बोझ, माता-पिता होने की भूमिका में उन्हें असफल करते हैं। ऐसी असफलता में, पालकों ने बेटियों पर सख्ती की एवं बेटों को स्वछंद छोड़ा। ऐसे संस्कारहीन बेटों को कोई अन्य माता-पिता सुधार नहीं सकते।अन्य वे, लाचारी में बिगड़ैल लड़कों बचाने के लिए बहन-बेटियों पर ही पाबंदी एवं रोकटोक रखने को विवश होते हैं। 

पापा की कुछ बातें मुझे, समझ- आईं थीं, कुछ नहीं आईं थीं। इस पर और कुछ ना कहते हुए मैंने पूछा - पापा यह, दुष्कृत्य, काम रोगी, कामुक, काम पिपासा, अनियंत्रित यौनेक्छा आदि बातें, मुझे प्रायः सुनने -पढ़ने मिलतीं हैं। इनके अर्थ क्या होते हैं? 

पापा ने कहा - बेटी, आज शाम मैं, तुम्हें अपने साथ एक जगह ले जाऊँगा। वहाँ से, तुम्हें बहुत से प्रश्न के उत्तर मिल सकेंगे। यद्यपि वह, ऐसी जगह है जहाँ कोई पिता, अपनी बेटी को लेकर नहीं जाता है। 

मैंने पूछा - पापा, ऐसा है तो आप, मुझे क्यूँ ऐसी जगह लेकर जा रहे हैं?

पापा ने कहा - बेटी, पापा होने के कारण मैंने तुम में वह गुण होना देखा है जिससे तुम किसी भी वस्तु में अच्छी-बुरी बातों को पृथक पृथक देख लेती हो। फिर उस वस्तु में से, अच्छाई ग्रहण करती हो एवं बुराई त्याज्य रखती हो। 

अपनी प्रशंसा से मैं प्रसन्न हुई थी। मैंने पूछा - पापा, मुझ में कौन सी बात देखकर, आपने यह निष्कर्ष निकाला है। 

तब पापा ने बताया - बेटी, प्रायः हर वस्तु में, कुछ ग्रहण योग्य एवं कुछ त्याजनीय बातें होतीं हैं। ऐसे ही स्कूल भी होता है। तुम स्कूल से ग्रहण करने वाली बात अर्थात अध्ययन में तो अपना ध्यान लगाती हो, जबकि वहाँ अपने सहपाठियों की बुराइयों में नहीं पड़ती हो। 

इस पर मैंने सोचा फिर कहा - हाँ पापा, यह तो है तभी मैं, प्रथम आया करती हूँ। 

वास्तव में, यह बाद के जीवन में मुझे, रियलाइज होना था कि मेरे गुण से अधिक, यह मेरे पापा में गुण था कि वह स्नेह एवं प्रशंसा के माध्यम से, मेरे सीखने-समझने को सहज ही सही दिशा दे दिया करते थे। ये पापा ही थे जो, हर वस्तु में अच्छाई एवं बुराई का (आभास) भेद, उस वस्तु तक, मेरे पहुँचने के पहले ही यथा प्रकार, मुझे करा दिया करते थे। 

उस शाम मेरे पापा मुझे स्वामी श्रध्दानंद रोड ले गए थे। वहाँ का दृश्य, मेरी अब तक देखी दुनिया से भिन्न था। 

वहाँ घरों के बाहर कम वस्त्रों में नवयुवतियाँ दिख रहीं थीं। वहाँ सड़कों पर नशा किये हुए पुरुष ज्यादा थे। विचित्र भंगिमाओं में, ये युवतियाँ आवाजें लगा कर उन पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित कर रहीं थीं। ऐसा देख कर मैंने, अपने पापा का हाथ थाम, स्वयं को उनके पीछे कर लिया था। 

तब सामने घर के दरवाजे पर बैठी एक अधेड़ सी औरत (आंटी) ने मुझे घूरते हुए, मेरे पापा से कहा - कहाँ से उठा लाया है? माल तो अभी कच्चा है। इसे पकाने में 2-4 साल लग जायेंगे। 

मुझे कुछ समझ नहीं आया था। उस आंटी की दृष्टि से मैं, घबरा गई थी। पापा मगर अविचलित थे, जैसे कि इस व्यवहार एवं बातों का उन्हें पूर्व अंदेशा रहा हो। 

वे, उस आंटी के पास रुके थे। आंटी से, उन्होंने बोला - यह मेरी बेटी है। आप जो समझ रहीं हैं वैसा कुछ नहीं है। मेरी इस बेटी के कुछ प्रश्न हैं, जिनके उत्तर दिलाने के लिए मैं, इसे यहाँ लाया हूँ। 

आंटी हँसी थी - तुम पागल तो नहीं, मैंने कोई बाप नहीं देखा जो 11-12 साल की लड़की को सिखाने के लिए हमारे क्षेत्र में लाता हो। फिर हमारा समय, फ़ालतू भी नहीं कि हम मुफ्त ऐसी समाज सेवा करें। 

पापा ने कहा - जी, सिनेमा, टीवी, नेट या अपने समवयस्क बच्चों से प्राप्त आधे अधूरे तरह का ज्ञान, मेरी बेटी को पथ भ्रमित कर सकता है। इसे, ऐसे भ्रम ज्ञान से बचाने के लिए मुझे उचित प्रतीत हुआ है कि मैं स्वयं ही, इसे सच्चे मित्र की भाँति, इसके संशयों का सही उत्तर दिलाऊँ। 

इसी विचार से मैं, इसे यहाँ लाया हूँ। आप सही कह रहीं हैं, आप निश्चिंत रहें, मैं मुफ्त आपका समय ख़राब नहीं करूँगा। आपका थोड़ा समय, बेटी के सामने आप से बात करने में लेकर, मै एक ग्राहक जितनी कीमत, आपको अदा करूँगा। 

मुझे ग्राहक एवं कीमत जैसी बातें समझ नहीं आईं थीं। उस आंटी के मुख पर पापा की बात से विचार करने जैसे भाव दर्शित हुए थे। फिर उन ने कहा था - 

कीमत लेकर तो हम, समाज सेवा रोज ही किया करते हैं। आज, मगर बिना कीमत लिए, आपकी जैसी ही विचित्रता से, एक समाज सेवा के कार्य में, जितना आप और ये बेटी चाहेगी, मैं सहर्ष अपना समय दूँगी। 

कहते हुए आंटी ने, हमें दरवाजे से अंदर प्रवेश करने को स्थान दिया था। उनके स्वर में अब पापा के उपहास की जगह सम्मान परिलक्षित हुआ था। इससे मेरा भय मिटा था। पापा सहित मैं, आंटी के साथ अंदर एक कक्ष में पहुँचे थे। जिसमें रखे, एक पुराने से सोफे पर, उस आंटी ने हमें बिठाया था। 


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