Dr Jogender Singh(jogi)

Others

4.5  

Dr Jogender Singh(jogi)

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प्रत्यक्ष

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ऐसा अक्सर होता " किसी से बातें करते करते ,अपने हाथ से किसी तरफ़ ईशारा करते , बातें करने में इतना मगन होते कि क्या चाहिये यह कहना भूल जाते" । मैं उनके हाथ उठाने के तरीक़े से समझ जाता और सामान उनके पास हाज़िर । कुछ ऐसी टेलीपैथी काम करती हम दोनों के बीच।

खाने का बहुत शौक़ उस से ज़्यादा बनाने का ।चाहे टेलिविज़न पर न्यूज़ ऐंकर शम्मी नारंग द्वारा बताया गया आमलेट बनाने का तरीक़ा या हमारे पड़ोसी धर साहेब द्वारा बताया गया रस्सेदार मैथी मटर उनको सब बनाना होता । इसके अलावा स्वरचित रेसेपीस । खाना बनाना शौक़ से बड़कर ज़ुनून था ।मुझे भी लगता जैसे कोई त्यौहार आ गया जब भी वो टूर से वापिस घर आते।बस नोनवेज मुझे पसंद ना आता । फिर भी खा लेता।

उनकी पीठ पर चड़ कर , पीठ दबाना। मेरी और चाचा के लड़के की पक्की ड्यूटी थी।सिर दबाना ,वो भी उनके बताये तरीक़ों से ।कनपटी से धीरे धीरे माथे के बीचो बीच आकर थोड़ी देर तक हाथ आयी खाल को पकड़े रखना ।सिर दबाते दबाते जैसे ही खर्राटे लेने लगते हम सब लोग भाग जाते।शुरुआत में जब बाल सफ़ेद होने लगे ,तो एक काम सफ़ेद बालों को निकालने का भी था । पर जैसे जैसे बाल कम होते गये ,बाल नोचने के काम से छुट्टी मिल गयी ।हाँ ! बाल नोचने का काम ,जब थक जाते तब काले सफ़ेद का फ़र्क़ किये बग़ैर बाल उखाड़ लेते ।छोटे छोटे क़िस्सों के रूप में घटनायें बयान करना ठीक रहेगा।

पहले उन की ज़ुबानी कुछ क़िस्से , तब मैं नहीं था ना ।

१:परदादाजी की नौकरी

 उनके पिता जी यानी मेरे परदादा जी सिरमौर रियासत के राजा अमर प्रकाश और उसके बाद राजा राजेंद्र प्रकाश के कार्यकाल में स्टोर की देखभाल करते थे।मेरी दादी बड़े गर्व से बताती थी , इतने ईमानदार थे ससुर जी एक ज़रा सा सामान भी इधर उधर नहीं जा सकता था ।उनकी पैनी नज़र से कुछ भी छिपा नहीं था । दशहरे के मेले में राजा और राजकुमार हाथी पर सवार होकर जाते । हाथी की काठी ससुर जी ही देते थे , राजा के हाथी की सोने की , और राजकुमार के हाथी की चाँदी की ।एक एक सामान सम्भाल कर रखते । जब रजवाड़ा ख़त्म हो रहा था , राजा ने ससुर जी को बुलाकर बोला यह ज़मीन नाहन में तुम ले लो। ससुर जी हाथ जोड़ बोले ,मेरे पास पैसा नहीं है । राजा बोले हरदयाल ! इतने सालों से सेवा कर रहे हो ,तुमसे पैसा लेंगे । पर ससुर जी मुफ़्त की ज़मीन लेने को तैयार नहीं हुये । दादी बड़े गर्व से बताती ।

२: दादाजी के दादा जी

एक उर्दू में लिखा ख़त मुझे कई बार दिखाया दादाजी ने , उनके मुताबिक़ यह उनके दादाजी का लिखा हुआ था ।उसमें लिखा था कि वो अंग्रेज़ी हकूमत में डॉक्टर थे । शिमला के पास किसी स्टेट के कुँवर थे , उनके दादाजी ।एक बार हमारे गाँव से गुज़रे तो ,उन्हें गाँव से दिखता नज़ारा बहुत पसंद आया । यंही शादी कर ली।दो बच्चे हो गये। जब मेरे परदादा जी पाँच छह साल के थे ,तो उनके पिता एक दौरे पर थे , मंडी ज़िला में सफ़र के दौरान उनकी मौत हो गयी थी। मेरे परदादा जी को छोटी सी उम्र में नाहन के राजा के यँहा नौकरी करनी पड़ी।दादाजी बताते थे कि एक बार वो जब दौरे पर थे तो शिमला के पास उस इस्टेट के उस समय के वारिसों से मिले थे ।जिनका आपसी विवाद चल रहा था ,जायदाद को लेकर। उन्होंने दादाजी को भी अपना दावा ठोकने के लिये उकसाया था । पर दादाजी ने मना कर दिया था।

३: साठ रोटी खाने वाला आदमी 

दादाजी ने हाई स्कूल तक की तालीम हासिल की । उसके बाद कुछ साल पंचायत इन्स्पेक्टर की नौकरी की । फिर नाहन में एक ढाबा खोला। ढाबे में फ़िक्स रेट पर खाना खिलाया जाता । एक दुबला पतला आदमी रोज़ एक वक़्त के खाने में साठ रोटी खा जाता । नौकर ने परेशान हो कर दादा जी को बताया। दादा जी ने नौकर से बोला इस बार जब वो आये तो एक प्लेट में तीस रोटियाँ एक साथ रख देना । नौकर ने वैसे ही किया । वो आदमी हैरान हो कर बोला इतनी रोटियाँ ?? तो दादा जी उसके पास गये और बोला अभी तो आप इतनी ही और खायेंगे । माफ़ी माँगते हुये उसने रोटियों के पैसे अलग से देने शुरू कर दिये । एक महीने में उसकी खुराक बारह रोटियों की ही रह गयी।

४: अजीब ईलाज

जब ग्राम पंचायत इन्स्पेक्टर की नौकरी के दौरान दादा जी को गाँव दौरा करना पड़ता था । राजगढ़ के पास किसी गाँव में ,जब भी मीटिंग होती ,एक बुजुर्ग जिसको चर्म रोग था ,हर बार आकर बैठ जाता। उन दिनो बुख़ार की गोलियाँ इन्स्पेक्टर के पास रहती थी । तीन चार बार दवा देने पर कोई असर नहीं हुआ। इस बार वो पैर पकड़ लिया । दादा जी को कुछ नहीं सूझ रहा था । उन्होंने बुजुर्ग से बोला कल आ कर दवाई ले लेना ।पर आप लोग तड़के चले जाओगे ? तुम सुबह चार बजे आ जाना।वो ख़ुशी ख़ुशी चला गया । दादा जी को समझ नहीं आ रहा था क्या करें ? हुक्का पीते पीते एक ख़्याल आया । सब लोगों के सोने के बाद चिलम की बची राख में बुख़ार की गोलियाँ पीस कर थोड़ा सा घी मिला कर छोटी छोटी काली गोलियाँ बना ली । साठ गोलियों की पुड़िया बना कर सो गये । सोचा अगर लेने नहीं आया तो ठीक ही है ,अगर आ गया तो यह दे दूँगा।बुजुर्ग सुबह सवेरे हाज़िर । गोलियों का पैकेट पकड़ा कर दादाजी बोले दो दो गोली सुबह शाम । सुबह पानी से , शाम को दूध से।पंद्रह दिन बाद फिर आयेंगे । पंद्रह दिन बाद जैसे ही गाँव में दाखिल हुये ,उस बुजुर्ग ने पैर पकड़ लिये । वो ठीक हो गया । दादा जी ने शान से साठ गोली की एक और खेप उसको दी ।

५:चिता से सिगरेट सुलगाना

बक़ौल दादाजी उन दिनों या तो पैदल चलते या संपन्न लोग घोड़े पर। हमारे गाँव का एक आदमी डाक विभाग में काम करता था । लगभग तीस किलोमीटर दूर ।रात में दोनो लोगों ने शराब पी । सुबह चार बजे मैं डाक लेकर चला जाऊँगा । दादाजी ने बोला मुझे भी उठा देना धूप चड़ने से पहले मैं भी घर पन्हुच जाऊँगा । सुबह उसने दादा जी को उठाया और अपना बैग लेकर चला गया । दादा जी भी अपने रास्ते चल पड़े । काफ़ी चलने के बाद भी उजाला नहीं हुआ । सोचा सिगरेट पी लूँ ।सिगरेट निकाल माचिस ढूँढी , अरे लगता है माचिस वँही छूट गयी ।दस किलोमीटर निकल आया हूँ अब क्या करूँ ? तभी दूर अलाव दिखाई दिया ।जल्दी जल्दी चलता हूँ , लगता है बंजारों का डेरा है, अगर उस तरफ़ जा रहें होंगे तो साथ मिल जायेगा ,अगर इस तरफ़ आ रहे होंगे तो सिगरेट तो सुलगा ही लूँगा ।लगभग बीस मिनट चलने पर अलाव के पास पंहुचा , वंहा सन्नाटा था, लगता है बंजारे निकल गये ।चलो सिगरेट सुलगा लेता हूँ । दो तीन कश लगाये तो लगा चर चर की आवाज़ आ रही है ।ध्यान से देखा अभी धड़ बचा हुआ था । चिता से सिगरेट सुलगा ली थी ।आसपास से कुछ लकड़ियाँ इकट्ठी कर चिता में डाल , सिगरेट के कश लेता हुआ सवेरा होने से पहले गाँव पन्हुच गया ।दरअसल नशे में डाककर्मी ने आधी रात को ही उठा दिया था।

६:अभिनय का शौक़

नाहन में एक अर्धसरकारी फ़ाउंडरी थी, उस के सौजन्य से एक बार नाटक का मंचन किया गया । पृथ्वीराज कपूर जी के साथ दादा जी ने भी उसमें भाग लिया था । उस नाटक की तस्वीरें उनकी छोटी सी ऐल्बम में सजी हुई थी ।उसके बाद दादा जी मुंबई भाग गये । पृथ्वीराज कपूर जी और अशोक कुमार जी के ऑफ़िस का काम देखा , पर मुंबई का मौसम रास नहीं आया ।बीमार रहने लगे ,तो वापिस आना पड़ा।

७:लाहौर जाना और विभाजन

 मुंबई का मौसम रास न आने की वजह से एक अंग्रेज के साथ लाहौर चले गये। विभाजन के समय पीठ पर गहरा चाकू का घाव लगा पर वो बच गए। एक बार जब वो नहाने जा रहे थे तो पीठ पर निशान देख मैंने पूछा था ,उनके साथ काम करने वाले एक मुसलमान साथी ने भीड़ के साथ मिलकर उन पर वार किया था।तभी से शायद वो फिर मुसलमानो पर ज़िंदगी भर विश्वास नहीं कर सके।मेरा एम बी बी एस में सिलेक्शन होने के बाद मुझ से कहते डॉक्टर से शादी कर लेना बस मुसलमान न हो।

।८:बिजली विभाग में नौकरी 

वापिस आ कर बिजली विभाग में स्टोरकीपर की नौकरी की।प्रोन्नत होते होते एस वी ओ ( सीनियर विजिलेंस ऑफ़िसर ) के पद तक पन्हुचे।पूरे हिमाचल प्रदेश का दौरा करते ।दौरे के लिये एक महीने में एक ज़िला । ज़िला सिरमौर के दौरे पर वो पंद्रह दिन घर ज़रूर आते ।उनके द्वारा लाए जाने वाले ग्लूकोस बिस्किट का हम सभी को इंतज़ार रहता । टाफी खाने से दांत ख़राब हो जाते हैं , वो कभी भी टाफी नहीं लाते । पर कुछ न कुछ ज़रूर ले कर आते।चाहे कुल्लू शिमला से सेब की पेटियाँ या कुछ और।

९: पढ़ाई की क़ीमत

पूरे घर में एक वो ही थे , जो पड़ाई पर ज़ोर देते । चाहे हम चार भाई बहन , चाहे चाचा के सात बच्चे ।सबकी कापी किताब फ़ीस , ड्रेस की ज़िम्मेदारी अकेले उन्होंने उठाई । ज़रूरत पड़ने पर अग़ल बग़ल के बच्चों की भी मदद की । हमारे घर की बग़ल में गाँव के चाचा को उनके पिताजी ने आठवीं कक्षा के बाद पड़ाने से मना कर दिया(क्योंकि गाँव के पास वाला स्कूल आठवें तक ही था) दादा जी ने उन चाचा को पूरी किताबें दिलवाई । बाद में उनके पापा ने पूरे पैसे वापिस कर दिये । पर वो उसी पड़ाई के दम पर नौकरी पा सके।

१०:बैड्मिंटन से प्यार

अपने विभाग में आयोजित प्रतियोगितायों में विनर और रनर के ढेर सारे कप जीते थे ।जैसे ही उनको पता चला मुझे भी बैड्मिंटन का शौक़ हुआ है , अपनी थोड़ी सी पेन्शन से मुझे नाहन के एकमात्र क्लब की मेंबेरशिप दिलवाई । यह अलग बात है कि मेरा शौक़ महीने भर में ही ख़त्म हो गया ।

११:लोगों की जलन क्यों??

उनको अच्छा खाना खाने /बनाने का शौक़ था । गाँव में सेवानिवृति के बाद शुरुआत में घर पर ही खाना खाया । अपने पैसे से राशन भरवाते ,फिर भी जब खाना ढंग का नहीं मिलता तो उन्होंने अपनी रसोई अलग बनवा ली।गाँव के कई लोग और उनके अपने घर वाले बोलते बूड्डा खा खा कर सारा पैसा खतम कर देगा । मरते दम तक एक पैसा भी किसी का नहीं लिया , तब यह हाल । मेरी पड़ाई का पूरा खर्चा उन्होंने किया । जब मुझे पोस्ट ग्रैजूएशन करते हुये पहला वेतन मिला ,मैंने उनको देना चाहा । उन्होंने साफ़ मना कर दिया । जा कर अपने पिता जी को दो।हमारे गाँव में रखवाली के लिये लकड़ी के तख़्तों और पतों से रखवाली के मचान बनाये जाते । सबसे पहले दादाजी ने रखवाली के लिये पक्के कमरे बनवाये (सिमेंटेड छत वाले) । जानवरों के रहने के कमरे की मिट्टी से छत बनाई जाती है , जिसे हर दो तीन साल में बदलना पड़ता है । दादा जी ने जानवरों के कमरे की छतें सिमेंटेड करवा दी थी ।सभी बच्चों को पड़ाने की कोशिश की । मेरी पाँच साल की एम बी बी एस की पड़ाई का हॉस्टल , किताबों आने जाने का पूरा खर्च (तिहतर हज़ार पाँच सौ रुपये ) पूरा का पूरा दादा जी ने दिया । बस दाख़िले के समय आने का किराया , होटेल का किराया और तीन सौ रुपये फ़ीस के पिता जी ने दिये थे । फिर भी सब लोग आज भी बैठ कर उनकी बुराई करते हैं ? क्यों ? बस इसलिये की उन्होंने दूसरों के साथ साथ अपने ऊपर अपनी मेहनत से कमाए पैसों को खर्च किया ।किसी से माँग कर नहीं । मेरे पिताजी को छोड़ किस ने उनकी सेवा की आख़िरी समय । मैंने भी नहीं (दूर था ) ।पर जिन लोगों के लिये उन्होंने इतना कुछ किया , उन्होंने क्या किया ? या उन्होंने अपनी औलादों के लिये उनसे ज़्यादा किया हो तो ज़रूर बोलें , नहीं तो कुछ भी बोलने से पहले अपने गिरेंबान में झांक लें । कम से कम जिन्होंने उन्हें देखा तक नहीं , वो बोलने से पहले सोच लें , समाज एक दिन तुम पर भी उँगली उठाएगा। 

मेरा नमन मेरे देवता समान पिता जी को।( सच्चे कर्म योगी ) शत शत नमन चरण वंदन मेरे भगवान समान दादा जी का।



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