नाम का राजा
नाम का राजा
राजा बहुत शक्तिशाली था। होना भी चाहिए। कितना सम्मान, कितना ऐश्वर्य, कितना प्रचार यही सब तो उसकी थाती थे पिछले कुछ सालों से। ऐसा लग रहा था जैसे जन्मों के भूखे को भोजन का ढेर मिल गया हो और वो उसे निपट अकेला ही हड़पना चाह रहा हो। चेहरे पर कुटिल मुस्कान, दम्भ से भरा अट्टाहस और नौकर चाकरों पर आधिपत्य। सब मंत्री संतरी उसकी परछाई में जैसे विलुप्त हो गए थे। घोर आत्मविश्वास था या अंहकार की चरम सीमा के उन्माद में झूमता वह नई परिभाषाएं गढ़ रहा था। विज्ञान, धर्म ,राष्ट्र और देशभक्ति के नए अर्थ थोपता, मनवाता उसका विजय रथ हर तरफ आरूढ़ था। जो सलाम करता कुछ पा लेता जो विरोध करता दुत्कार दिया जाता। चापलूसों कि एक बड़ी भीड़ उसकी हर बात का समर्थन जुटाती। इस उन्मादी भीड़ के आगे निरीह जनता चुपचाप अपने काम मे मग्न रहती या पिटती। फिर धीरे धीरे समय गुजरता गया। विरोधी चुप होते गए, सलाहकार लुप्त होते गए जैसे भीषण आग के आगे छोटे मोटे तिनके मिट जाते है।
जनता के ही बीच कुछ गुप्त वार्ताएं शुरू हुई, योजनाएँ बनाई गई, संघर्ष शील लोग फिर से हिम्मत जुटाकर, बिना जान माल की परवाह किये बिना राजा के कामों की निरंतर आलोचना करते रहे। राजा ने इन गिने चुने लोगों की परवाह नही की। उधर जनता ने मौन रहकर समय की प्रतीक्षा की। पांडवों ने वनवास के दौरान ऐसे ही योजनाएँ बनाई थी, भगवान रस्म ने ऐसे ही समाज के हर निम्न प्राणी को अपने दल में शामिल किया था। उन्हें पता था कि हर दमनकारी राजा के राज्य में उसके अपने दल में भी प्रताड़ित लोग होते हैं और उसका विरोध करना चाहते है ,पर वे डरते है और समय की प्रतीक्षा करते है। आखिर राजा का दमन चक्र कब तक चलता। उसका चमकता मुकुट कब तक उसके सिर पर चमकता ।
आखिरकार सत्ता परिवर्तन का दिन आया। लोकतंत्र के इस नए दौर में लोगों के हाथ अपनी मर्ज़ी के राजा को चुनने का अवसर आया। इतने दिनों के दमन और अपने दबे हुए गुस्से का हिसाब करने का समय आया। राजा बहुत खुश था, अंहकार में चूर था। उसने डरे हुए लोगों और के सिपहसिलारों भय को ही अपने प्रति प्यार समझने की भूल की।
उसे लगा सत्ता भय औऱ लालच के मायाजाल से चलती है। वो भूल गया कि सत्ता तब तक चलती है जब तक लोग खुश हो जब तक वे महसूस करें कि वे और उनका आने वाला कल सुरक्षित है। ये दिन लोकतंत्र में अपना राजा बदलने के दिन थे। लोग एकजुट हो गए। लोगो का काफिला बढ़ता गया। उनके दुख उनके जुल्म उन्हें लगातार जोड़ते गए। राजा से असंतुष्ट राजा के ही मंत्री उनकी गुप्त सहायता करने लगे। और फिर लोकमत का दिन आया। राजा बेखबर था। लोकमत ने उसे सत्ता से उखाड़ फेंका। जनता ने उसे सरेआम महल से दौड़ने को मजबूर कर दिया। राजा ने खूब ताली बजाकर अपने मंत्रियों को पुकारा, भयानक अट्टाहस किया। पर कोई न आया। राजा निपट अकेला था। सत्ता बदल चुकी थी। किले और महल की प्राचीर पर लोग बाग यहां वहाँ लाठी बल्लम लेकर चढ़ चुके थे। रासज के सताये मंत्रियों ने ही गुप्त द्वार से लोगों को महल के भीतर प्रवेश करवा दिया था।
राज्य मिट चुका था। लोग बाग अपने सभी द्वेष भूलकर जुड़ चके था। राजा अब सिर्फ नाम का राजा था।