मुस्कुराहटों का सिग्नल
मुस्कुराहटों का सिग्नल
जैसे ही चौराहे का सिग्नल लाल हुआ वो उठी और रुकी हुई गाड़ियों की तरफ भागी। किसी ने दुत्कारा, किसी ने उसको देख अपनी गाड़ी के कांच चढ़ा लिए। वो कभी काली गाड़ी में बैठी दीदी की तरफ दौड़ती तो कभी मोटरबाइक पर सवार उन अंकल की तरफ ....उसकी रफ्तार देख ऐसा लगा जैसे कोई भाग-दौड़ प्रतियोगिता हो रही हो।
हर गाड़ी के कांच खटखटाती और मनुहार करती जाती कि कोई तो ले ही लेगा। ऐसे ही दौड़ते दौड़ते मेरी गाड़ी के पास आकर कांच उतारने का इशारा किया। मेरे कांच उतारते ही उसकी आँखों की चमक देख लगा जैसे उसने आधी लड़ाई जीत ली हो। बिना समय गंवाए रट्टू तोते की तरह शुरू हो गई, "ले लो भईया एक साथ दस लोगे तो मैं पच्चीस में लगा दूंगी और अगर ये बड़ा गुच्छा लोगे तो चालीस में दे दूंगी। ले लो भैया घर पर भाभी को देना खुश हो जाएगी। कौन सा रंग पसन्द है भाभी को ये गुलाबी वाला या पीला वाला। आप कहो तो ये लाल वाला गुच्छा दे दूँ, देखो एकदम ताजे ताजे खिले हुए हैं।"
मैंने उसको चुप रहने का इशारा किया और कहा "एक तो ये लंबी लाल बत्ती, ट्रैफिक और ऊपर से तेरी बकबक। पता नहीं ये सिग्नल कितनी देर में हरा होगा। आज तो ऑफ़िस में देर पक्की समझो। अच्छा ये बता तेरा नाम क्या है?"
वो झट से बोली, "मेरा नाम छुटकी हैं भईया। मैंने ही तो भगवान जी को बोला है इस बारी की लाल बत्ती जरा लंबी कर दे।"
क्यों", मैंने ग़ुस्सा दिखाते हुए कहा और साथ ही दस गुलाब देने को कहा।
"ये लाल बत्ती से ही तो हमारा घर चलता है। इनके हरे होते ही तो आपकी जिंदगी रफ्तार पकड़ लेती है और हमारी थम जाती है।" इतना कहते कहते छुटकी मुझे लाल गुलाबों का गुच्छा पकड़ा, पैसे ले दूसरी गाड़ी की तरफ बढ़ गई। मैंने देखा उसका चेहरा उन लाल गुलाबों की तरह खिल गया था।