Dr Jogender Singh(jogi)

Others

3.5  

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मंशा राम

मंशा राम

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ऊँचा क़द पाँच फ़ुट नौ इंच के लगभग, चौड़े कन्धे, सिर पर पुराने कपड़े की आधी / अधूरी पगड़ी। बड़ा सा झोला लटकाये झोले में तूम्बे की बनी बीन, ऐल्यूमिनीयम की छोटी सी थाली, एक लोहे का मग। बाक़ी माँग कर इकट्ठी की हुयी तमाम तरह की चीजें। पूरा नाम मंशा राम। बच्चों के लिये एक डरावना "मंशा "था। बनेठी गाँव के बगल में बांग्ला देशियों की एक बस्ती थी, छप्पर डाल कर रहते थे मंशा उन्ही में से एक। 

चाची और छोटी दादी हम लोगों को डराती रहती, बदमाशी करोगे तो मंशा अपनी झोली में भर कर ले जायेगा। बड़ों के डराने की वजह से मंशा हम बच्चों को और भी डरावना लगता।

यह जो बंगाली होते हैं, सब कुछ खा जाते हैं " साँप, गोह, साही जो भी मिल जाये और बच्चों को पकड़ लेते हैं। छोटी दादी ने बच्चों को बताया।

"बच्चों का क्या करते हैं बंगाली ??" जगदीश ने पूछा।

बेच देते होंगे और क्या करेंगे। गम्भीर आवाज़ में दादी बोली।

पर ख़रीदता कौन है ? जगदीश पीछे ही पड़ गया।

सिपले ( बदतमीज़)हो तुम, शहर जा कर बेचते हैं।

फिर तो मैं जाऊँगा मंशे के साथ जगदीश शहर के सपने देखने लगा।

काम करवाते है, शहर में, मारते अलग से, दादी ने डराया।

मंशा हमारे लिये डर का कारण था ।

जैसे ही मंशा गाँव में घुसता, कुत्ते भोंकने लगते। उस को देख बच्चे चिल्लाते " बंगाली आ गया , बंगाली आ गया " सब लोग दौड़ पड़ते। मंशा चुपचाप आँगन में आ कर बैठ जाता, बैगन के पोधों के बगल में। ऐल्यूमिनीयम की थाली निकाल लेता, उस को जो भी दे दो चुपचाप खा लेता, खाना ख़त्म कर ललचाई नज़रों से रसोई की तरफ़ देखता रहता। घर में मौजूद चाची / दादी परेशान हो कर रसोई का दरवाज़ा बंद कर लेती। मंशा का पेट कभी भरता ही नहीं था। रसोई का दरवाज़ा बंद होते ही, वो अपना मग आगे कर छाछ माँगता " अच्छा छाछ ही पिला दो।" " जा ! जाकर छाछ दे आ" कभी /कभी दादी मुझे भेज देती। डर के मारे उसकी तरफ़ देखे बग़ैर उसको छाछ देता रहता और वो पीता रहता, पूरी कुजी ( मिट्टी का बर्तन ) ख़ाली कर देता। खाने को देख ललचाने की उसकी आदत स्थानीय मुहावरा बन गयी " मंशा हो क्या, जो खाना देख ऐसे ललचा रहे हो ? " यह अक्सर बोला जाता। दूसरा " मंशे की तरह क्यों देख रहे हो, कभी खाया नहीं क्या??"

उसके बार बार आने से कुत्तों ने उसको देख भौंकना छोड़ दिया। अब वो एकदम दिख जाता, हम लोगों की हालत ख़राब हो जाती। कभी कभी अपनी बीन निकाल, बेसुरी सी धुन बजाता। हम लोगों के लिये एक अजूबा, उसके बीन बजाते ही हम लोग उसको घेर लेते। 

बढ़ती उम्र के साथ उसका आना कम हो गया। फिर एकदम बंद। सुना है सरकार ने सभी बंगालियों के राशन कार्ड बनवा दिये हैं। वोट देने का अधिकार भी स्थानीय नेताओं के दख़ल से मिल गया। थोड़ी /थोड़ी ज़मीन भी उन लोगों को दे दी गयी। बंगाली उन दिनो गाली की तरह प्रयोग होता था। "कैसे घूम रहे हो गंदे /संदे बंगाली की तरह, यह वाक्य आम था। आज बंगाली समाज का हिस्सा बन गये हैं। साही, गोह, गीदड़ का लगभग ख़ात्मा कर दिया बंगालियों ने। 

क्या उनको अभी भी बांग्ला देश याद आता होगा ?? ??? पता नहीं ??



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