मेरी बुआ
मेरी बुआ
एक बहुत पुरानी कहावत है कि ‘माई मरे मौसी जिये...’
मौसी की भांति घर-परिवार में बुआ भी होती है। दादी को स्वर्ग जाने के बाद एक मेरी सबसे प्यारी छोटी बुआ जिनका मेरे परवरिश में काफी योगदान रहा आज गुर्दे की बीमारी से जूझ रही है।
इन्फेक्सन इतना तगड़ा है जिसमें डायलसिस भी सम्भव नहीं है। जीवन और मौत से लड़ रही बुआ से जब भी मेरी बातें होती है मन बहुत दुखी होता है। उन्हें कुछ बताया नहीं गया है सिर्फ इन्फ़ेक्सन के आलावा,
मगर हम जानते है घर-परिवार के और लोग भी जानते है कि जब तक चल रही है तब तक।
जानकर भी कोई कुछ नहीं कर सकता। गुर्दे की बीमारी ऐसी बीमारी है कि जिसे लग जाये वही भोगता है। लाख रुपया-पैसा लगा दो समय बढ़ सकता है लेकिन मौत को रोका नहीं जा सकता है।
कानपुर के हैलेट अस्पताल में इलाज चल रहा है मगर इस समय एक-एक अंग उनके शरीर का काम करना बन्द कर रहा है।
इधर कुछ दिनों से उनका कान भी सुनना बन्द कर दिया जिसके कारन इस समय बात भी नहीं हो पाती है।
उनकी शारीरिक और पारिवारिक स्थिति को देखकर ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि भगवान उन्हें इस संसार से मुक्ति दें।
जब जीवन ही सम्भव ना हो बचने की कोई उम्मीद नहीं जब कौन रोक पायेगा उन्हें हमसे दूर जाने से।
मगर हाँ मेरे जीवन में मेरे लालन-पालन में उनका बहुत योगदान था।
मेरी बुआ हमें भतीजा नहीं कभी कभी भाई भी बोलती थी। उसी रिश्ते को सोचकर और उनकी वर्तमान हालत देखकर न चाहते हुये भी दिल दुखी हो जा रहा है। आँखें भर आती है उनके प्यार और व्यवहार को सोचकर।
भगवान उन्हें उत्तम स्वास्थ्य दें या उन्हें इस दुनिया से उठा लें जिससे उनकी आत्मा को सन्तुष्टि मिले...!