Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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मेरे पापा (2) ..

मेरे पापा (2) ..

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रविवार को मात्र 9 दिन थे मगर बीते यूँ थे जैसे कोई बड़ा अरसा हो। इस बीच मेरे सुशांत से विवाह संभावना को लेकर मिलने जाने की बात मेरी माँ, मेरे जीजू-दीदी से बताना चाहती थी। मैंने उन्हें रोका था। यह बताये जाने पर इसमें मैं, जीजू का अनावश्यक दखल देख रही थी। यह मुझे इस समय सहन नहीं था। माँ, मान गई थीं। उन्होंने यह कहा कि - ठीक है बात यदि आगे बढ़ती है तो बता देंगे। 

फिर प्रतीक्षित वह घड़ी आई थी जब रविवार आया एवं तय अनुसार 12.30 पर मैं उनके घर पर पहुँची थी। इसके पूर्व मैंने गिने चुने अवसरों पर ही साड़ी पहनी थी। लेकिन सर के, सादगी के सिध्दांत को ध्यान में रखते हुए मैंने गुलाबी साड़ी के साथ सुर्ख लाल ब्लॉउज पहना हुआ था। साड़ी में मुझे असुविधा अनुभव हो रही थी। मैं बिना सुशांत को देखे ही, उससे शादी को मरी जा रही थी अतः इंकार की आशंका से मैं अत्यंत मानसिक दबाव में भी थी। 

दरवाजा सर ने ही खोला था। मैं उनके चरण स्पर्श के लिए झुकी थी। उन्होंने मेरे हाथ बीच में ही थाम कर, रोक दिए थे। आशीर्वाद में कहा - सदा खुश रहो। 

उनका स्पर्श, मुझे बिल्कुल अपने पापा के हाथों से मिलता लगा था। वे मुझे, अत्यंत स्नेह से अंदर के कमरे के सोफे तक ले गए थे, उन्होंने मुझे बैठने कहा था। तब उन्होंने आवाज दी थी - सारिका, रमणीक आ गई है।

ऑन्टी का नाम सारिका है, मुझे तब पता चला जब, आवाज सुन ऑन्टी कमरे में हँसते हुए आईं थीं। मैंने उनके चरण छुये थे। उन्होंने ममत्व से मेरे सिर पर हाथ रखते हुए मुझे, सोफे पर अपने साथ बिठाया था। 

अब मेरी जिज्ञासा सुशांत को लेकर बढ़ रही थी कि वह अब तक सामने क्यूँ नहीं आया है? मेरे मन को शायद, सर ने पढ़ लिया था। वे यह कहते हुए उठे थे कि - मैं, सुशांत को लेकर आता हूँ। 

सर के, भीतर जाने के बाद ऑन्टी ने हँसते हुए मुझे बताया कि - यह सुशांत का आइडिया है। वह तुम्हें वह फीलिंग देना चाहता है जैसे पूर्व के दिनों में कोई लड़का, लड़की देखने पहुँचा होता था और उसे, लड़की के घर के सत्कार से मिलती थी। 

सुशांत हमेशा से शरारती रहा है। कहता है, अब दिन बदले हैं। अब लड़कियाँ, लड़कों से हर क्षेत्र में बढ़त लेने को उत्सुक हुईं हैं। 

सुशांत के, मुझे देखने के आने के स्थान पर, ऑन्टी का सुशांत से, मिलवाये जाने के मुझे, विचित्र लगते बुलावे के पीछे की लॉजिक अब मैं समझ पा रही थी। 

मुझे लेकर सुशांत का यह व्यवहार बहुत भाया था। मैं सोचने लगी कि अपने को मिलता महत्व, किसे बुरा लगता है? चाहे वह लड़की ही क्यों न हो, होती तो वह भी लड़कों की भाँति मनुष्य ही है। 

मैं यह सोच ही रही थी कि सर और एक नौजवान कक्ष में आते दिखाई दिए। यह नौजवान ही, कदाचित सुशांत था। उसके हाथ में एक बड़ी ट्रे थी जिसमें, सूखे मेवों एवं फलों के साथ शिकंजी के गिलास थे। 

सुशांत के द्वारा प्रस्तुत किया दृश्य अत्यंत नाटकीय था। सुशांत की आँखे झुकी हुईं एवं चेहरे पर संकोच दर्शित था। मुझे आ रही हँसी को रोकने में, बहुत मेहनत करनी पड़ी थी। साथ ही मेरे मन में यह विचार भी आया कि यह लड़का ना हो, कहीं मंद बुद्धि तो नहीं!

ऑन्टी ने भी मेरी तरह अपनी हँसी रोकी थी। उन्होंने, ट्रे लिए, सामने खड़े सुशांत से कहा था - बेटे, बैठो। 

यह सुनकर सुशांत ने ट्रे सेंटर टेबल पर ऐसे रखी थी कि गिलास कुछ टकराये थे एवं उसमें रखा तरल कुछ छलक आया था, जैसे कि उसके हाथ काँपे हों। फिर वह सिमटा सा, सामने के सोफे पर बैठा था। 

अब मैंने उसे पहली बार गौर से देखा था। वह ऊँचा, गठीले बदन का अत्यंत सुंदर नौजवान था। वह अब वापिस खड़ा हुआ था। उसने ट्रे में से, एक खाली तश्तरी मेरी तरफ बढ़ाई थी। मेरे थामने के बाद उसमें सर्विंग स्पून से, कुछ कटे हुए फल एवं मेवे परोसे थे। 

ऐसी ही प्लेट्स उसने सर एवं ऑन्टी को भी दीं थी। इस समय उसकी सभी गतिविधियां सधी हुईं थीं। जिससे यह साफ था कि टेबल पर रखते हुए ट्रे में, गिलासों का टकराना सुशांत के अभिनय की देन थी। 

सभी को सर्वे करने के उपरान्त सुशांत ने अपने लिए शिकंजी का गिलास लिया था और वापिस सामने सोफे पर बैठा था। सर ने मुझे, नाश्ता ग्रहण करने कहा था। मैंने सुशांत की ओर देखते हुए फ़ल खाना शुरू किया था। साथ ही सब भी खाने लगे थे। मैंने देखा तो सुशांत शिकंजी के घूँट भर रहा था। 

अब ऑन्टी ने मुझसे कहा - रमणीक, यह हमारा बेटा सुशांत है। तुम इसके बारे में जो भी जानना चाहती हो इससे पूछो। 

ऑन्टी के ऐसा कहे जाने पर, कुछ क्षण पूर्व मेरे मन में उठी शंका का मुझे ख्याल आया, यह छबीला सुंदर लड़का मंद बुध्दि तो नहीं? इस प्रश्न पर, उसका परीक्षण करने के विचार से मैंने सुशांत से पूछा - आप कौन सा जॉब करते हैं?

सुशांत ने अब अभिनय करना छोड़ा था। मुझे सीधे देखते हुए उत्तर दिया था - "जी, मैं एयर फ़ोर्स में, फ्लाइट लेफ्टिनेंट हूँ।" 

उत्तर से चौंकने की बारी मेरी थी कि सुशांत, आर्मी में है। मुझे हाल ही का #अभिनंदन वर्तमान का, अदम्य साहासिक कारनामा स्मरण हो आया। 

मैंने अपने को संयत रखते हुए अगला प्रश्न किया था - आपकी पोस्टिंग कहाँ है? 

सुशांत ने बताया - अभी तक मैं तिरुअनंतपुरम मुख्यालय में पदस्थ था। मेरे 20 दिन के अवकाश खत्म होने के बाद, मुझे नई दिल्ली मुख्यालय में रिपोर्ट करना है। 

अब सुशांत को लेकर मेरी सभी शंकायें खत्म हो चुकी थीं। सुशांत की, इम्प्रेससिव पर्सनालिटी एवं ऐसे सेंस ऑफ़ हुमूर से, मैं उसकी दीवानी हुई थी। 

सर एवं ऑन्टी को मैं पहले ही जानती थी। अतः मैंने और प्रश्न नहीं किये थे। अपितु सुशांत से, मेरे बारे में उसकी चाही, जानकारी लेने कहा था। सुशांत ने मेरी शिक्षा एवं जॉब को लेकर कुछ प्रश्न किये थे। जिनका विवरण, मैंने अपने उत्तर में दे दिये थे। फिर उन सभी के साथ ही मैंने लंच लिया था। और अढ़ाई बजे, उनके घर से विदा ली थी। 

लौटते हुए मेरा मन बुझा जा रहा था कि सुशांत ने मुझसे अकेले में बात करने की कोशिश या प्रस्ताव नहीं किया था। सुशांत से विवाह को लेकर मुझ पर निर्मित हुआ, मानसिक दबाव मुझे आशंकित कर रहा था कि शायद सुशांत ने, मुझे पसंद नहीं किया है। मेरे कमजोर पड़ रहे मन में इस आशंका को पुष्ट करने वाला विचार भी आया था कि सुशांत के सजीले-सुंदर एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व के तुलना में, मेरा साधारण रूपवान होना, मुझे उसके योग्य नहीं बनाता है। उस जैसे स्मार्ट एवं एयरफोर्स ऑफिसर के लिए तो अच्छी से अच्छी अनेक लड़कियों के रिश्ते आसानी से मिलेंगे। ऐसे योग्य-बुद्धिमान लड़के पर तो कॉलेज के दिनों में ही, अनेक अच्छी लड़कियाँ अपना दिल, उसे दिए फिरतीं रहीं होंगी। 

अब मैं अपने भाग्य से शिकायत करने लगी थी। मेरे भाग्य, अगर तू ही मेरे साथ रहा होता तो क्यूँ मैं, अपनी 17 वर्ष की छोटी उम्र में ही अपने पापा को खो देती? तू अगर आज साथ देता तो मेरे, इस परिवार से जुड़ने के सपने पूरे हो रहे होते। 

तू मेरे साथ होता तो तूने मुझे सुशांत जैसी योग्यता दिलवाई होती या सुशांत को कुछ कम सुंदर और कम योग्य बनाया होता। 

देख भाग्य, तेरी निष्ठुरता से मुझ पर ऐसे योग्य लड़के को, जो किसी लड़की के सम्मान एवं स्वाभिमान की अनूठी एवं भली तरह रक्षा करता है, रक्षक होना जिस लड़के का स्वभाव एवं कार्य है, तेरे साथ न देने से, मैं उसे खो दूंगी। 

तब मुझे यूँ प्रतीत हुआ जैसे मेरा भाग्य मुझे कोई उत्तर दे रहा है, जैसे वह मुझसे कह रहा है कि - मैं साथ नहीं होता तो, हे भोली लड़की, उससे तुम्हारे मिलने के संयोग ही क्यूँ बनाता। दुनिया में अनेकों लड़के हैं जिनसे तो मैंने, तुम्हारे मिलने के संयोग बनाये नहीं, लेकिन तुम्हें, सुशांत से मिलवाया है। तुम यूँ अधीर क्यूँ होती हो? धैर्य धारण कर के आगे तो देखो कि मैं, कैसे तुम्हारा साथ देता हूँ। 

इन ख्यालों में डूबी मैं अपने घर पहुँची, तो उदासी मेरे चेहरे पर पुती हुई थी। 

बेटी की उदासी, माँ से छिपती नहीं है। मेरी माँ ने इसे, मेरे मुखड़े पर पढ़ लिया था। माँ ने आशंकित स्वर में पूछा था -" निकी, क्या हुआ बेटी? सब ठीक तो रहा? क्या सुशांत तुम्हें पसंद नहीं आया?"

मैंने माँ को चिंता में नहीं डालने के विचार से अपने ओंठों पर झूठी मुस्कान बिखेरी एवं कहा - "नहीं माँ ऐसी कोई बात नहीं "है। लड़का योग्य है एवं एयरफोर्स में ऑफिसर है। वहाँ मुझे सब कुछ, ठीक लगा है। अब देखना यह है कि आगे उनकी तरफ से, कैसी बात आती है। 

माँ मेरे उत्तर से चिंताग्रस्त दिखीं उन्होंने कहा -" एयरफोर्स में ऑफिसर? यह तो ठीक नहीं। वैसे भी अभी दुश्मन देशों ने हम पर युध्द के खतरे उत्पन्न किये हुए हैं? तुमने देखा होगा पिछले वर्ष हमारा ऑफिसर कैसे दुश्मन के बीच फँस गया था। "

मैंने कहा माँ - "उनकी शूरवीरता ने देश में कितना मान एवं प्रशंसा दी। यह गर्व की बात भी तो है। "

माँ ने कहा - "जब अभिनंदन, वहाँ पकड़े गए तो उनका परिवार किस मानसिक वेदना से गुजरा होगा इसकी कल्पना है तुम्हें?"

मैं सोचते हुए चुप हो गई। उनकी यह प्रतिक्रिया, उनके तरफ से मुझे आश्वस्त कर रही थी। यदि इस रिश्ते में इंकार भी होता है, तो माँ ऐसा सोचते हुए बुरा नहीं मानेगी। मैंने अपनी अन्य चिंता उनसे छिपाते हुए कहा - हाँ, माँ यह तो है। फिर वहाँ से हाँ ही होगी, ऐसा भी तो नहीं है। उनकी ना हुई तो आपको भी, कोई धर्म संकट नहीं रहेगा। 

फिर मैंने कहा - "माँ, सर ने मुझे ज़बरदस्ती बहुत खिला दिया है अतः मुझे नींद आ रही है। मैं थोड़ा सोना चाहती हूँ। "

माँ ने कहा -" हाँ निकी, तुम, थोड़ा सो लो। और दिनों में, तुम्हें आराम भी तो नहीं मिलता है। "

फिर मैं अपने कमरे में आई थी। मैंने चिंता में डूबे रहते हुए अपनी साड़ी बदली थी। तब बिस्तर पर लेटकर सोचने लगी थी कि बेकार ही सर की तरफ से यह प्रस्ताव आया था। 

ऐसा न होता तो विवाह की मनाही से, हम दो परिवारों के बीच आ जाने वाली संभावित खटास, पापा के रूप में मिले सर से, मेरा बना आत्मीयता का रिश्ता खत्म होने की कोई आशंका तो नहीं रहती। सुशांत जितना सुंदर एवं योग्य है वह भला क्यों कर, मुझ जैसी साधारण लड़की को पसंद करेगा?

इन विचारों ने मुझे भावुक कर दिया था। मेरी आँखों में अश्रुओं से नमी आई थी। 

अकेले में यूँ रोते हुए मुझे सर की माँ का स्मरण हो आया। जिसने मुझे अन्य तरह से विचार को प्रेरित किया। मैं सोचने लगी अगर उनके तथा सर के आदर्शों ने मुझे प्रभावित किया है तो मुझे सिर्फ कहने-सुनने के लिए आदर्श पसंद नहीं करने चाहिए बल्कि मुझ में उन्हें जीने का साहस होना चाहिए। 

इस विचार ने मुझे दृढ़ता प्रदान की, कि नहीं मुझे अपने लिए ही, सुख की अभिलाषा नहीं होना चाहिए। मुझसे जुड़ने में सुशांत को अपने जीवन में सुख दिखाई देता है तब ही मेरा उनसे विवाह उचित होगा। मैं अपने पापा को खो कर भी तो जी रही हूँ। उस परिवार से न जुड़ पाना, इससे बड़ी जीवन रिक्तता तो नहीं होगी। इस विचार ने मुझ में साहस का संचार किया तब थोड़ी देर में निद्रा ने मुझे अपने आगोश में ले लिया था। 

रात में जब हमने भोजन कर लिया था तब, मेरे मोबाइल पर कॉल आया था। मैंने देखा तो, स्क्रीन पर, सर का चेहरा दिखाई पड़ रहा था। अपने तीव्र धड़कते हृदय के साथ, लपक कर मैंने रिप्लाई किया था - "हेलो सर!"

मोबाइल पर सर की नहीं, आंटी की आवाज सुनाई पड़ी थी। वे कह रहीं थीं - "रमणीक, माँ से बात कराओ। "

यह सुन मेरी आशंका बढ़ गई थी कि उनका इंकार वे, मुझे नहीं, मेरी माँ से कहना चाहती हैं। बुझे मन से मैंने, मोबाइल माँ को दिया था, बताया था कि - "ऑन्टी, आपसे बात करना चाहतीं हैं। "यह कहते हुए फिर मैं वहाँ से हट गई थी। 

करीब दस मिनट बाद माँ, मेरे पास आईं थीं। उन्होंने मुझे बताया कि - "निकी, उनमें एक और बात ठीक नहीं है।" 

मैंने तत्परता से पूछा - "कौन सी बात माँ।' 

माँ ने कहा - "सुशांत, उनका जन्मा बेटा नहीं है। "

इस पर मैं अवाक् हुई, मैंने चिंतित स्वर में पूछा - "माँ क्या आपसे, यह ऑन्टी ने कहा है? "



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